Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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श्रेणी-आरोहण करता है, वह 'स्व' में ही निमग्न रहता है, अतः उसमें पर के हित का कोई विचार ही नहीं हो सकता है।
परहित की भावना चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक ही संभव होती है, इसलिए दिगम्बर-परम्परा का यह आग्रह है कि धर्मध्यान की संभावना चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक ही मानी जा सकती है।
इस प्रकार, दिगम्बर-परम्परा चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक के चार गुणस्थानों में ही धर्मध्यान की संभावना को मानती है, जबकि श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार धर्मध्यान की संभावना सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक अर्थात् उपर्युक्त छह गुणस्थानों में पाई जाती है।
__ आर्त्त, रौद्र और शुक्ल-ध्यान के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में विशेष मतभेद नहीं है। जो मतभेद देखा जाता है, वह धर्मध्यान के सन्दर्भ में ही है।
इस संबंध में तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्याय के छत्तीसवें सूत्र की व्याख्या करते हुए दिगम्बर-विद्वान् पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री लिखते हैं -"धर्म्यध्यान के चार भेद हैं। ये अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतजीवों के संभव है। तात्पर्य यह है कि श्रेणी-आरोहण के पहले-पहले धर्म्यध्यान होता है और श्रेणी-आरोहण के समय से शुक्लध्यान होता है।12
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ दिगम्बर-परम्परा नौवें अध्याय के छत्तीसवें सूत्र को 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्" 113 तक सीमित करती है, वहाँ श्वेताम्बर-परम्परा में यह सूत्र अधिक विस्तार से पाया जाता है। उसमें "आज्ञाऽपायविपाक संस्थान विचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य” तक कह दिया गया है। इसके बाद श्वेताम्बर-परम्परा में अड़तीसवें सूत्र के रूप में "उपशांतक्षीणकषाययोश्च” का. सूत्र भी मिलता है। इसकी व्याख्या में पण्डित सुखलालजी लिखते हैं -1. वीतराग तथा सर्वज्ञ पुरूष की आज्ञा क्या है और वह कैसी होनी चाहिए?
॥ तत्त्वार्थसूत्र - विवेचनकर्ता सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्र शास्त्री सूत्र 9/36 की व्याख्या पृ.301 13 श्वेताम्बर-परम्परा में धर्म्यम् के स्थान पर "धर्ममप्रमत्तसंयतस्य” सूत्रपाठ है।
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