Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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रौद्रध्यान के स्वामी की भूमिका प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान और पंचम गुणस्थान तक हो सकती है। पहले गुणस्थान में अनंतानुबन्धी-कषाय का उदय रहता है, इसलिए रौद्रध्यान करने वाले प्राणी मुख्यतया तो प्रथम गुणस्थान में ही होते हैं, क्योंकि उसमें अनंतानुबन्धी क्रोधादि की उपस्थिति बनी हुई है। द्वितीय गुणस्थान तो अतिअल्पकालिक है, लेकिन फिर भी सत्ता की अपेक्षा से, या अनाभिव्यक्त अवस्था की अपेक्षा से द्वितीय गुणस्थान में भी रौद्रध्यान संभव हो सकता है। तृतीय मिश्र-गुणस्थान है और इसमें जीव जब भी मिथ्यात्व की ओर अभिमुख होता है, उसमें रौद्रध्यान संभव हो सकता है। चतुर्थ गुणस्थान अविरतसम्यग्दृष्टि का है। इस गुणस्थान में चाहे व्यक्ति की समझ ठीक हो, किंतु उसका अपने पर ही अंकुश नहीं होता, अर्थात् उसमें अप्रत्याख्यानी-कषायचतुष्क तो रहते हैं और उनकी उपस्थिति के कारण उसमें दूसरे के प्रति आक्रोश और अहित की भावना हो सकती है, अतः चतुर्थ गुणस्थानवी जीवों में या प्राणियों में रौद्रध्यान की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
इसी प्रकार, पंचम गुणस्थान में रहने वाले जीव भी कभी-कभी रौद्रध्यान से प्रभावित हो सकते हैं, क्योंकि इस गुणस्थान में भी अप्रत्याख्यानी-कषाय की संभावना रहती है। इस गुणस्थान के अन्त में ही व्यक्ति अप्रत्याख्यानी-कषाय का त्याग कर पाता है। पंचम गुणस्थान देशविरतसम्यग्दृष्टि का माना गया है। देशविरत का मतलब है -आंशिक रूप से कषायों के बन्धन में रहने वाला और आंशिक रूप से कषायों की अभिव्यक्ति की विरति में रहने वाला होता है। अतः पंचम गुणस्थानवर्ती प्राणी भी जब-जब कषायों के बन्धन में आता है, या अंशतः अविरत-दशा को प्राप्त होता है, तब-तब उसमें रौद्रध्यान की सम्भावना मानी जाती है, अतः हम यह कह सकते हैं कि सामान्यतया तो रौद्रध्यान के स्वामी मिथ्यादृष्टिजीव ही होते हैं, किन्तु मिश्रगुणस्थानवर्ती-जीव या अविरतसम्यग्दृष्टि-जीव या देशविरतसम्यग्दृष्टि-जीव में भी रौद्रध्यान की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
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