Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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आर्तध्यान सबसे तीव्र रहता है। द्वितीय और तृतीय गुणस्थान की कालावधि कम होने से इन दोनों गुणस्थानों में चाहे सत्ता में तीव्रतम आर्तध्यान रहे, फिर भी प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा इन दोनों गुणस्थानों में आर्तध्यान की तीव्रता और समयावधि -दोनों ही कम होते हैं, क्योंकि द्वितीय गुणस्थान का अधिकतम काल छह आवलिका और तृतीय गुणस्थान का काल मात्र एक अन्तर्मुहूर्त माना गया है। चतुर्थ गुणस्थान की कालावधि पर्याप्त रूप से दीर्घ हो सकती है, किन्तु सम्यग्दर्शन की उपस्थिति होने से इस गुणस्थान में आर्तध्यान की अवस्था उतनी तीव्र नहीं होती, जितनी कि प्रथम गुणस्थान में होती है। पंचम देशविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान और छठवें प्रमत्तसर्वविरति-गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की सत्ता होने से आर्त्तध्यान की उतनी तीव्रता नहीं रहती है। छठवां जो सर्वविरत प्रमत्तसंयत गुणस्थान है, उसमें प्रमाद की सत्ता तो है, किन्तु सर्वविरति होने के कारण उनकी आकाक्षाएँ, इच्छाएँ आदि अतितीव्र नहीं होती, अतः इस गुणस्थान में आर्त्तध्यान उतना सघन नहीं होता, जितना कि प्रथम गुणस्थान में होता है।
रौद्रध्यान के स्वामी की विभिन्न भूमिकाएँ - - पूर्व में हमने जिस गुणस्थान-सिद्धान्त या आध्यात्मिक-विकास की अवस्थाओं की चर्चा की है, उसमें रौद्रध्यान के स्वामी किस भूमिका तक होते हैं, यह यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है।
आर्तध्यान और रौद्रध्यान –दोनों ही संसारी जीवों को होते हैं, फिर भी यह माना गया है कि रौद्रध्यान चतुर्थ गुणस्थान या पंचम गुणस्थान तक ही संभव है, क्योंकि मुनि को रौद्रध्यान नहीं होता है और यदि होता है, तो वह मुनित्व से गिर जाता है। इसका कारण यह है कि रौद्रध्यान अनंतानुबन्धी-षायचतुष्क तथा अप्रत्याख्यानी-कषायचतुष्क की उपस्थिति में ही संभव है। यदि कहना हो, तो हम यह कह सकते हैं कि जहाँ आर्त्तध्यान में मात्र स्वार्थवृत्ति होती है, वहाँ रौद्रध्यान में स्वार्थ के साथ-साथ पर के अपकार या अहित की वृत्ति भी होती है, इसलिए
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