Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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आर्तध्यान के स्वामी की विभिन्न भूमिकाएँ
___पूर्व में हमने ध्याता के आध्यात्मिक-विकास की विभिन्न अवस्थाओं की चर्चा की और यह पाया कि जैन-परम्परा में ध्याता के आध्यात्मिक-विकास की चौदह भूमिकाएँ मानी गई हैं, जिन्हें गुणस्थान के नाम से जाना जाता है। इन चौदह गुणस्थानों में आर्तध्यान की संभावना किस गुणस्थान से लेकर किस गुणस्थान तक पायी जाती है - इस तथ्य के संबंध में यहाँ विवेचन करेंगे।
सामान्यतया, ध्यान--संबंधी ग्रन्थों में यह कहा गया है कि आर्त्तध्यान के स्वामी, अर्थात् आर्तध्यान करने वाले व्यक्ति पहले गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान तक पाए जाते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम एवं षष्ठम गुणस्थान के धारक आर्त्तध्यान में जीते हैं।
यद्यपि इन छह गुणस्थानों में द्वितीय और तृतीय गुणस्थान की कालावधि अधिक लम्बी नहीं होती है, फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि इन छह गुणस्थानों में आर्तध्यान की संभावना है। जैसा कि हमने पूर्व में विवेचित किया है कि जब तक व्यक्ति में इच्छाएँ, आकांक्षाएँ या अपेक्षाएँ बनी रहती हैं, तब तक आर्त्तध्यान की संभावना बनी रहती है। पहले गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान तक प्रमाद की सत्ता बनी रहती है, अर्थात् इन गुणस्थानों में व्यक्ति इच्छाओं, आकांक्षाओं या अपेक्षाओं से जुड़ा रहता है। किसी प्रकार की चाह या अपेक्षा होना ही आर्तध्यान है और जब तक प्रमाद की सत्ता बनी हुई है, तब तक इच्छाएँ, आकांक्षाएँ या अपेक्षाएँ समाप्त नहीं हो सकती। इस दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि प्रथम गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान तक के जीवों में आर्त्तध्यान की संभावना बनी हुई है, फिर भी स्पष्ट रूप से यह जान लेना चाहिए कि इन छह गुणस्थानों के जीवों में आर्तध्यान की तरतमता तो रहती ही है। मिथ्यात्व-गुणस्थान में आर्तध्यान जितना तीव्र होता है, उसकी अपेक्षा षष्ठ गुणस्थान में रहने वाले मुनिवृंद के आर्त्तध्यान की स्थिति पर्याप्त रूप से कम होती है। प्रथम गुणस्थान में
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