Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय में आत्मा सर्वोत्कृष्ट शुक्लध्यान के माध्यम से सुमेरू के समान स्थिति को प्राप्त करके, शरीर का त्याग करके सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाती है।109
दूसरे शब्दों में, पाँच हृस्वाक्षरों के उच्चारण जितनी अल्प समयावधि में शैलेशीकरण के माध्यम से चारों अघातीकर्मों का क्षय करके एक समय में ऋजुगति से उर्ध्वगमन कर लोकाग्र में स्थित मोक्ष में चले जाते हैं। सिद्धावस्था को प्राप्त होने पर अनंत-ज्ञान, अनंत-दर्शन, अव्याबाध सुख, अनन्तवीर्य, क्षायिक-सम्यक्त्व, अक्षयस्थिति, अरूपी और अगुरुलघुत्व - इन आठ गुणों से युक्त होकर सदा-सदा के लिए कृतकृत्य बन जाते हैं। ये कर्मबीज रहित होने से पुनः संसार में लौटकर नहीं आते हैं।110
जैन विचारकों ने इसे मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण-ब्रह्म की स्थिति प्राप्त करने वाला बताया है।11 इसमें शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरण संभव होते हैं।
इस प्रकार, संक्षेप में ध्याता के आध्यात्मिक विकास की विभिन्न भूमिकाओं का (चौदह गुणस्थान) का वर्णन समाप्त होता है।
108 केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवदकम्पनीयस्य ।। – योगशास्त्र, 10/9 10% क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3082-89
ख) जैनधर्मदर्शन, पृ. 50 110 क) अनुयोगद्वार, क्षायिकभाव, सूत्र 126, पृ. 117
ख) समवायांगसूत्र, समवाय-31 ग) प्रवचनसारोद्धार, गा. 1593/94 II ज्ञानसार, त्यागाष्टक (दर्शन और चिन्तन) भा.-2, पृ. 275 से उद्धृत
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