Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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क्षीणकषायकाल में शुक्लध्यान के प्रथम भेद के होने की सम्भावना प्रकट की गई है। शुक्लध्यान के तीसरे भेद का प्रगटीकरण केवली-अवस्था35 में और चौथे भेद का प्रगटीकरण योगनिरोध के पश्चात् शैलेशी-अवस्था में संभव है। आदिपुराण" के अनुसार शुक्लध्यान को शुक्ल तथा परमशुक्ल -इन दो भागों में विभाजित किया गया है। इनमें छद्मस्थों को तो उपशांतमोह अथवा क्षीणभोह-दशा में शुक्लध्यान तथा केवलज्ञानियों में परमशुक्ल-शुक्लध्यान होता है।
'तत्त्वानुशासन' में मात्र शुक्लध्यान के स्वरूप का वर्णन है, उसके भेदों, स्वामी आदि का कोई उल्लेख नहीं है।38
'ज्ञानार्णव' में भी आदिपुराण के समान ही पूर्व के दो शुक्लध्यानों के स्वामी छद्मस्थ एवं अन्तिम दो शुक्लध्यानों के अधिकारी विमुक्त केवली हैं।
'ध्यानस्तव के ग्रन्थकार की मान्यता के अनुसार अत्यधिक विशुद्ध धर्मध्यान रूप शुक्लध्यान दो श्रेणियों में विद्यमान है। प्रथम शुक्लध्यान का अधिकारी तीन योगों से युक्त पूर्ववेदी, द्वितीय शुक्लध्यान का अधिकारी एकयोग से युक्त पूर्ववेदी, तृतीय शुक्लध्यान का अधिकारी सूक्ष्मकाययोग की क्रिया वाला सयोगी-केवली और चरम शुक्लध्यान का अधिकारी अयोगी–केवली होता है।40
श्वेताम्बर-परम्परानुसार, उपशान्तकषाय तथा क्षीणकषाय पूर्वधरों में शुक्लध्यान के प्रथम के दो चरण संभव होते हैं और चरम के दो शुक्लध्यान सयोगी और अयोगी-केवली में भी संभव हैं।
34 उवसंतकसायम्मि............संभवसिद्धी दो।। - धवला, पुस्तक 13, पृ. 81 35 वही, पुस्तक-13, पृ. 83-86 36 वही, पुस्तक-13, पृ. 87 37 शुक्लं परमशुक्लं चेत्याम्नाये तद् द्विधोदितम्। छद्मस्थस्वामिकं पूर्व परं केवलिनां मतम् ।। - आदिपुराण, 21/167 38 तत्त्वानुशासन – 221-222 3 छद्मस्थयोगिनामाद्ये द्वे तु शुक्ले प्रकीर्तिते।
द्वे त्वन्त्ये क्षीणदोषाणां केवलज्ञानचक्षुषाम् ।। - ज्ञानार्णव, 7, पृ. 431 40 सवितर्क सवीचार...........सर्वज्ञस्यानिवर्तकम् ।। - ध्यानस्तव, श्लो. 17-21
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