Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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3. मिश्र दृष्टि - गुणस्थान
यह गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है जिसमें जीव न पूर्ण सम्यक् - दृष्टि होता है और न पूर्ण मिथ्यादृष्टि । दर्शन - मोहनीय के तीन पुंजों सम्यक्त्व (शुद्ध), मिथ्यात्व (अशुद्ध) और सम्यक् - मिथ्यात्व (अर्द्धशुद्ध) में से जब अर्द्धशुद्ध पुंज का उदय होता है, तब मिश्र गुणस्थान होता है । 2 जैसे शक्कर के साथ दही का स्वाद कुछ खट्टा कुछ मीठा अर्थात् मिश्र होता है, वैसे ही जीव का दृष्टिकोण भी कुछ सही कुछ गलत यानी सम्यक्मिश्र - मिथ्या होता है। इस अवस्था को सम्यग्मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान कहते हैं ।" इस गुणस्थान की विशेषता यह है कि जो जीव इस अवस्था में है, उसकी मृत्यु संभव नहीं ।
इस संदर्भ में आचार्य नेमिचंद्र का कहना है कि जहाँ आगामी आयुष्यकर्मबंध की संभावना नहीं होती है, वहाँ मृत्यु की भी संभावना नहीं होती है। 74 यही आध्यात्मिक विकास की तीसरी भूमिका मिश्रगुणस्थान है। पहले गुणस्थान वाला जीव एकान्त-मिथ्यात्वी होता है। दूसरे गुणस्थान का अधिकारी अपक्रान्ति वाला होता है और तीसरे गुणस्थानवर्ती जीव अपक्रान्ति और उत्क्रान्ति - दोनों ही प्रकार वाले होते हैं। इन तीनों गुणस्थानों में ध्यान तो है ही, किन्तु आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान हैं जो संसार - परिभ्रमण के हेतु हैं ।
4. अविरति - सम्यग्दृष्टि- गुणस्थान
इस गुणस्थान में साधक को यथार्थता का भान हो जाता है। वह सही को सही, गलत को गलत, सत्य को सत्य के रूप में तथा असत्य को असत्य के रूप
72 सम्मामिच्छुदयेणय जत्तंतर सव्वघादि कज्जेण ।
नय सम्मं मिच्छं पि यं सम्मिस्सो होदि परिणामो ।।
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गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 21
73 क) जात्यन्तर समुद्भूतिर्वऽवा खरयोर्यथा । गुइदध्नोः सणायोगे रस भेदान्तरं यथा ।
तथा धर्मद्वयेश्रद्धा जायते समबुद्धितः । मिश्रोऽसौ भण्यते तस्माद् भावो जात्यन्तरात्मकः । । - गुणस्थानकक्रमारोहण, श्लोक 14-15, पृ. 6
ख) दहिगुऽमिव वामिस्सं पुहभावं गोव करिदु सक्कं
ग) सम्यग् मिथ्यारूचिर्मिश्रः सम्यग् मिथ्यात्व पाकतः..
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गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा. 22 संस्कृत पंचसंग्रह, श्लोक - 1 / 22
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