Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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10. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान -
सूक्ष्म अर्थात् अल्प सम्पराय यानी कषाय। जिस गुणस्थान में मात्र सूक्ष्म लोभ का ही उदय रहता है, उस गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसम्पराय-गुणस्थान है। इस गुणस्थान के प्रथम के कुछ सूक्ष्म खण्डों में मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से सत्ताईस प्रकृतियों का नाश हो जाता है, तब साधक इस गुणस्थान का अधिकारी बनता है। इसमें लोभ के अलावा सब प्रकृतियों का अभाव हो जाता है। ‘पंचसंग्रह' में लिखा गया है कि जिस प्रकार धुले हुए गुलाबी रंग के कपड़े में लालिमा सुर्थी की सूक्ष्म-सी आभा विद्यमान रहती है, उसी प्रकार इस गुणस्थान का अधिकारी जीव संज्वलन-लोभ के सूक्ष्म खण्डों का वेदन करता है।
डॉ. टाटिया के शब्दों में –“आध्यात्मिक-विकास की उच्चता में रहे हुए इस सूक्ष्म लोभ की व्याख्या अवचेतन रूप में शरीर के प्रति रहे हुए राग के अर्थ में की जा सकती है।98
ध्यान की अपेक्षा से इस गुणस्थान की स्थिति अल्पकालिक है। सामान्यतया, इसमें धर्मध्यान तो रहता ही है, किन्तु इसके अन्तिम चरण में सूक्ष्म लोभ का भी क्षय हो जाने से इसके अन्त में शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण सम्भव हो सकते हैं। 11. उपशान्तमोह-गुणस्थान -
जब साधक आध्यात्मिक-विकास की इस भूमिका में प्रवेश करता है, तब पूर्व अवस्था में रहा सूक्ष्म लोभ भी जब उपशान्त हो जाता है, वह अवस्था आती है, लेकिन साधक के लिए यह अवस्था खतरनाक भी है क्योंकि यदि वासनाओं का
96 क) अण-दंस-नपुंसि-त्थी-वेय-छक्कं च पुरिसवेयं च। दो दो एगंतरिए सरिसे सरिसं उवसमेइ।।
ख) उवसामगसेढीए पट्ठवओ अप्पमत्तविरओ उ। एकेकक्केणंतरिए संजलणेणं उवसमेइ ।। ग) विशेषावश्यकभाष्य बृहवृत्याः ।। - हेमचंद्र, अ.2. पृ. 482-484
प्रवचनसारोद्धार, द्वार-90, गा. 700-708 । ड) कर्मग्रन्थ-5/98
पूर्वज्ञः शुद्धिमात् युक्तो ध्याद्यैः संहननैस्त्रिभिः। संध्यायन्नाद्यशुक्लाशं स्वां श्रेणिं शमकः श्रयेत्।। – गुणस्थानक्रमारोह-40 97 लोभः संज्वलनः सूक्ष्मः शमं यत्र प्रपद्यते। क्षयं वा संयतः सूक्ष्मः साम्परांयः स कथ्यते।।
कौसुम्मोन्तर्गतो रागो यथावस्त्रे तिष्ठते। सूक्ष्म लोभ गुणेलोभः शोध्यमानस्तथा तनुः ।। - संस्कृत पंचसंग्रह - 1/43-44 9 स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ. 278
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