Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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5. अपूर्वस्थितिबंध - पूर्व की अपेक्षा अति-अल्प स्थिति वाले कर्मों को बांधना अपूर्वस्थितिबंध है। उपर्युक्त पांचों प्रक्रिया पहले के गुणस्थानों में भी होती है, लेकिन इस गुणस्थान में इनको करने का अपूर्व-विधान होने से यह गुणस्थान अपूर्वकरण कहलाता है।
आत्म-विकास की चौदह अवस्थाओं में पहले की सात अवस्थाओं तक अनात्म का आत्म पर अधिकार होता है और पीछे की सात अवस्थाओं में आत्म का अनात्म पर अधिशासन होता है। इस सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन ने एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण देते हुए कहा है2 - "ऐसे किसी उपनिवेश की कल्पना कीजिए, जिस पर किसी विदेशी जाति ने अनादिकाल से आधिपत्य कर रखा हो और वहाँ की जनता को गुलाम बना लिया हो, यही प्रथम गुणस्थान है। उस पराधीनता की अवस्था में ही शासक-वर्ग द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ उठाकर वहीं की जनता में स्वतंत्रता की चेतना का उदय हो जाता है - यही चतुर्थ गुणस्थान है। बाद में, वह जनता कुछ अधिकारों की माँग प्रस्तुत करती है और कुछ प्रयासों और परिस्थितियों के आधार पर उनकी यह माँग स्वीकृत होती है- यही पांचवां गुण स्थान है। इसमें सफलता प्राप्त कर जनता अपने हितों की कल्पना के सक्रिय होने पर औपनिवेशिक-स्वराज्य की प्राप्ति का प्रयास करती है और संयोग उसके अनुकूल होने से उनकी वह माँग भी स्वीकृत हो जाती है- यह छठवां गुणस्थान है। औपनिवेशिक-स्वराज्य की इस अवस्था में जनता पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रयास करती है, उसके हेतु सजग होकर अपनी शक्ति का संचय करती है- यह सातवाँ गुणस्थान है। आगे वह अपनी पूर्ण स्वतंत्रता का उद्घोष करती हुई उन विदेशियों से संघर्ष प्रारम्भ करती है। संघर्ष की प्रथम स्थिति में यद्यपि उसकी
90 शुभं प्रकृतिष्वशुभप्रकृति दलिकस्य प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धया विशुद्धिवशांन्नयनं
गुणसंक्रमःतमिहासावपूर्वकरोति। - सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव) पृ.4 कर्मग्रन्थ भाग-2,पृ.26 91 अपूर्वकरणं स्थितिघातरसघात गुणश्रेणिगुणसंक्रमण स्थितिबन्धानां पंचानामर्थानां निर्वर्तनमस्यासावपूर्व
करणः तथाहि यावत्प्रमाणमसौ पूर्वगुणस्थानविशुद्धया स्थितिखण्डकं रस खण्डकं वा हलवान् ततो वृहत्तरप्रमाणमपूर्वस्मिन् गुणस्थानेहन्ति ।।
- वही, पृ. 4 92 गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण। - ले. डॉ. सागरमल जैन, पृ. 64
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