Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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करता है। प्रत्याख्यानावरणीय-कषाय के उदय से सावद्य-क्रियाओं अथवा पापाचरण से सर्वथा मुक्त तो नहीं, पर आंशिक रूप से उन सावद्य-क्रियाओं से निवृत्त होता है; इस गुणस्थान में स्थित जीव देशविरति-श्रावक कहलाता है। उसकी इस आंशिक त्यागमयी वृत्ति के कारण इसे देशविरति-गुणस्थान कहते हैं।
'षट्खण्डागम19 में इसे संयतासंयत और 'गोम्मटसार'80 में इसे विरताविरत नाम से अभिहित किया है। इस गुणस्थान में आर्तध्यान और रौद्रध्यान मंद होता है। श्रावक आवश्यक क्रिया, ग्यारह प्रतिमाओं एवं बारह व्रतों को ग्रहण करनेवाला होने से इसमें धर्मध्यान मध्यम कोटि का होता है। इस गुणस्थान में न्यूनतम स्थिति अन्तर्मुहूर्त एवं अधिकतम स्थिति कुछ न्यून करोड़ वर्ष की होती है।
डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में –“वासनामय जीव से आंशिक रूप में निवृत्ति, हिंसा, झूठ, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचार तथा क्रोध, लोभ आदि कषायों से
आंशिक रूप में विरत होना ही देशविरति है। इस गुणस्थान में साधक यद्यपि गृहस्थाश्रमी रहता है, फिर भी वासनाओं पर थोड़ा-बहुत यथाशक्ति नियन्त्रण करने का प्रयास करता है। पंचम गुणस्थानवर्ती साधक साधना-पथ पर फिसलता तो है, लेकिन उसमें संभलने की क्षमता भी होती है। ऐसे साधक के लिए यह जरूरी है कि क्रोधादि कषायों की आंतरिक एवं बाह्य-अभिव्यक्ति होने पर उनका नियंत्रण करे
और अपनी मानसिक-विकृति का परिशोधन एवं विशुद्धिकरण करे। जो व्यक्ति चार मास के अन्दर उनका परिशोधन तथा परिमार्जन नहीं कर लेता, तो वह श्रेणी से गिर जाता है। 82
78 पच्चक्खाणुदयादो संजय भावो ण होदि ण व दिंतु।
थोव वदो होदि तदो देसवदो होदि पंचमओ।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 30 १ षड्खण्डागम -1/1/13-14 ४० विरदाविरदो निसेक्कमइ ।। – गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 31 81 गुणस्थान क्रमारोह, गाथा 24-26 की टीका सहित 82 प्रस्तुत संदर्भ : 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' ले. डॉ.सागरमल जैन से उद्धृत, पृ. 58-59
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