Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
263
1. मिथ्यात्व-गुणस्थान 2. सास्वादान-सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान 3. मिश्रदृष्टि-गुणस्थान 4. अविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान 5. देशविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान 6. प्रमत्तसंयत-गुणस्थान 7. अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान । 8. अपूर्वकरण-गुणस्थान 9. अनिवृत्तिकरण-गुणस्थान 10. सूक्ष्मसम्पराय –गुणस्थान 11. उपशान्तमोह-गुणस्थान 12.क्षीणमोह-गुणस्थान | 13. सयोगीकेवली-गुणस्थान 14. अयोगीकेवली-गुणस्थान ।42
आत्मशक्ति की विकसित और अविकसित अवस्था को समवायांगसूत्र 43 में गुणस्थान न कहकर जीवस्थान कहा गया है।
डॉ. श्रीमती कोकिला के शब्दों में –“आत्मा के गुणों के विकास की भूमिकाओं की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं।
आत्म-शक्ति की आविर्भाव वाली प्रथम अवस्था को प्रथम गुणस्थान कहा गया है। धीरे-धीरे क्रमिक विकास के साथ-साथ आत्म-आलोक प्रकट होने लगता है और बढ़ते-बढ़ते यह चौदहवें गुणस्थान तक सम्पूर्ण रूप से आत्मा की निर्विकल्प दशा या शैलेषी-अवस्था को प्राप्त होता है। तब आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है और तभी जीव अपने अन्तिम लक्ष्य तक या अपने साध्य 'मोक्ष' तक पहुंचता है। पूर्णता की यह अन्तिम अवस्था ही मोक्षावस्था, सिद्धावस्था या निजस्वरूपावस्था है। इस अवस्था में जन्म, जरा और मरण नहीं होता, जहाँ से फिर लौटना नहीं होता,
42 क) मिच्छे सासणमीसे अविरय देसे पमत्त-अपमत्ते। नियट्टि अनियटिं सुहु-मुवसमखीणसजोगिअजोगिगुणा।। – कर्मग्रन्थ, 2/2
ख) चतुर्दशगुणश्रेणी................ चतुर्दशम् ।। - गुणस्थानक्रमारोह, 2-5 43 कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाण पण्णत्ता तं जहा -
मिच्छादिट्ठि सासायणसम्मादिट्टि ....अयोगी केवली ।। – समवायांगसूत्र, सं.मधुकर मुनि, 14/15 44 'प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा' पुस्तक के शुभकामना से उद्धृत।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org