Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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चौदह गुणस्थानों का स्वरूप -
जैन-दर्शन में आध्यात्मिक-विकासयात्रा के विकसित एवं अविकसित चौदह सोपान माने गए हैं। उन चौदह सोपानों के नाम पूर्व में सूचित किए गए हैं।
इन चौदह सोपानों को जीवस्थान, जीवसमास, जीवमार्गणा, आध्यात्मिकभूमिकाएं या गुणस्थान की संज्ञा से निर्दिष्ट किया गया है।
___ 'गोम्मटसार' में संक्षेप, ओघ, सामान्य, जीवसमास -ये चार शब्द गुणस्थान के समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं।
डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में –“चौदह गुणस्थान में से प्रथम के चार गुणस्थान तक का क्रम सम्यग्दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पांचवें से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यक्चारित्र से सम्बन्धित है। तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान आध्यात्मिक-पूर्णता का द्योतक है। इनमें भी, दूसरे
और तीसरे गुणस्थानों का संबंध विकासक्रम से न होकर, मात्र चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान की ओर होने वाले पतन को सूचित करने से है। 62
इन गुणस्थानों का संक्षेप परिचय इस प्रकार है - 1. मिथ्यात्व-गुणस्थान -
___ इस गुणस्थान में वस्तु-तत्त्व का वास्तविक ज्ञान या सत्य की अनुभूति नहीं होती है। इसमें जीव को सही दिशा का ज्ञान न होने के कारण वह भौतिक पदार्थों तथा भौतिक सुख-साधनों से सुख-प्राप्ति की अभीप्सा में डूबा रहता है। वह आध्यात्मिक-सुख अथवा आत्मिक-आनंद की अनुभूति नहीं कर पाता है। गलत दृष्टिकोण के कारण वह सही को गलत एवं गलत को सही, यथार्थ को अयथार्थ और अयथार्थ को यथार्थ, अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मान बैठता है, अलक्ष्यता के कारण पथभ्रान्त हो जाता है और इसी कारण, अपने निर्धारित लक्ष्य
61 क) संखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा ...... | – गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा-3
ख) चउद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धाय णादव्वा।। - वही, जीवकाण्ड, गाथा-10 62 गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण, डॉ. सागरमल जैन, पृ.52
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