Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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जाना चाहिए, लेकिन जब हम ध्यान की प्रक्रिया का विचार करते हैं, उस समय ध्याता और ध्यातव्य में अभेद होता है, क्योंकि ध्यान केवल विचारों का ही होता है और ध्याता से भिन्न नहीं होते हैं। ध्यान की कोई वस्तु हो सकती है, जैसेजिनप्रतिमा, किन्तु ध्यान के समय चित्तवृत्ति प्रतिमा पर स्थित न होकर प्रतिमा की जो मानस-आकृति है, उसी पर होती है, अतः ध्याता वस्तुतः अपनी ही चैतसिक पर्यायों का ध्याता होता है और जिस प्रकार द्रव्य और पर्याय पृथक्-पृथक् नहीं होते, उसी प्रकार ध्याता और ध्यातव्य भी पृथक्-पृथक् नहीं होते हैं
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जिस प्रकार द्रव्य और उसकी पर्यायों में भेदाभेद हैं, उसी प्रकार ध्याता और ध्यातव्य में भी भेदाभेद हैं।
ध्याता के आध्यात्मिक विकास की विभिन्न भूमिकाएँ (चौदह गुणस्थान }
आज समस्त विश्व का जनसमूह स्वार्थवृत्ति के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। वह भौतिक सुख को ही अपना सुख मान रहा है । भौतिक सुखों को ही परम सुख मानकर वह सत्य तथ्यों से एवं महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों से कोसों दूर भाग रहा है, स्वयं के आत्म - उत्क्रान्ति के प्रयत्नों से विमुख हो रहा है। वह यह भूल रहा है कि आत्मा की क्रमोन्नति क्रमशः संवर और निर्जरा-रूप अध्यवसायों से ही संभव है।
दूसरे शब्दों में, नए-नए कर्मों का आगमन रुके और पूर्वकृत कर्मों का परिमार्जन हो; ऐसी साधना करने से वह शनैः-शनैः उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। जैसे-जैसे उसके आत्म- गुणों का प्रकटीकरण होगा, वैसे-वैसे उसके कर्मावरणों का निवारण होता जाएगा और जैसे-जैसे कर्मावरण क्षीण होंगे, वैसे-वैसे वह आध्यात्मिक - विकास की ऊँचाइयों की ओर आगे बढ़ता जाएगा ।
जैन-दर्शन में आध्यात्मिक - विकास की भूमिकाओं को चौदह भागों में विभाजित किया हैं, जो चौदह गुणस्थान के नाम से जानी जाती हैं। वे चौदह प्रकार इस प्रकार हैं अधोलिखित
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