Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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अध्याय-4 ध्यान के स्वामी
संसार की समस्त जीवराशि में ध्यान की योग्यता पाई जाती है, क्योंकि जैन--दर्शन के सिद्धान्तानुसार आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान तो. संसारी-जीवों के साथ अनादिकाल से लगे हुए हैं। व्यापक दृष्टि से तो ध्यान में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार के ध्यानों का समावेश होता है।
तत्त्वानुशासन में लिखा है जो इस लोक-परलोक की फलाकांक्षा, इच्छाओं, अपेक्षाओं से ग्रसित है, वे सब आर्तध्यान और रौद्रध्यान के अधिकारी होते हैं, इसलिए आर्तध्यान और रौद्रध्यान को त्यागकर व्यक्ति को धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान की उपासना करनी चाहिए।'
डॉ. सागरमल जैन का इस सन्दर्भ में यह कहना है -"हमें यह मानना होगा कि अप्रशस्त ध्यानों की पात्रता तो अपूर्ण रूप से विकसित सभी प्राणियों में किसी न किसी रूप में रही हुई है। मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान में स्थित नारक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव आदि सभी में आर्तध्यान और रौद्रध्यान पाए जाते हैं। यद्यपि आर्तध्यान प्रमत्तसंयत नामक छठवें गुणस्थान में भी रहता है, किन्तु जब हम ध्यान का तात्पर्य केवल प्रशस्तध्यान अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान से लेते हैं, तो हमें यह मानना ही होगा कि इन ध्यानों के अधिकारी अथवा स्वामी सभी प्राणी नहीं हैं।"2
ध्यान के स्वामी के सन्दर्भ में स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, मूलाचार, औपपातिक आदि सूत्रों में किसी भी प्रकार का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है।
। क) यद्ध्यानं रौद्रमार्तं वा, यदैहिकफलार्थिनाम्। .
तस्मादेतत्परित्यज्य, धर्म्य शुक्लम्पास्यताम् ।। - तत्त्वानुशासन, 220 ख) इष्टोपदेश श्लोक, टीका 20, पृष्ठ 23 जैनसाधना पद्धति में ध्यान, डॉ. सागरमल जैन, पृ.22-23
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