Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
250
चर्चासागर आदि ग्रन्थों में संक्षिप्त रूप से शुक्लध्यान के क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति- इन चार आलम्बनों का उल्लेख मिलता है।
आलम्बन की आवश्यकता ध्यान के लिए ध्येय का निर्धारण आवश्यक होता है। जैन-दर्शन में ध्यान शब्द को व्यापक अर्थ में लेकर उसको ध्येय के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया है।
ध्यान का जो ध्येय होता है, या दूसरे शब्दों में, ध्यान के चिन्तन के जो-जो विषय होते हैं, वे ही ध्यान के आलम्बन कहे जाते हैं। ध्येय को दो भागों में बांटा गया है- 1. द्रव्य-ध्येय और 2. भाव-ध्येय।
हमारे समक्ष जड़ या चेतन जो पदार्थ उपस्थित होते हैं, जब उन्हें ध्येय बना लिया जाता है, तो वे द्रव्य-ध्येय कहलाते हैं। ध्यान का ध्येय के रूप में परिणमन होना भाव-ध्येय कहलाता है। जैसे-जैसे ध्यान अभ्यस्थ होता जाएगा, वैसे-वैसे ध्यान ध्येय के रूप में परिवर्तित होता चला जाएगा।881
ध्यान के विषय का चैतसिक-बिम्ब ही भाव-ध्येय है। सामान्यतया, जैन-दर्शन में ध्यान को चित्तवृत्ति का निरोध न मानकर चित्तवृत्ति की एकाग्रता माना जाता है और चित्तवृत्ति की एकाग्रता के लिए आलम्बन आवश्यक होता है। जो चित्त चंचल होता है, वह लक्ष्यवेध करने में सफल नहीं होता है, अतः ध्यान में ध्येयरूप आलम्बन की अपेक्षा रहती है। लक्ष्यवेध एकाग्रता में ही सम्भव है और यह एकाग्रता किसी आलम्बन का सहारा लेकर ही सम्भव होती है।
इससे यह फलित होता है कि ध्यान के लिए ध्येय या आलम्बन की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। जिस प्रकार यदि एक पशु अधिक भाग-दौड़ करता है, दूसरों के खेतों को नुकसान पहुंचाता है, तो उसकी उन सभी गतिविधियों को रोकने के लिए उसे किसी एक जगह बांध दिया जाता है, उसी प्रकार चित्त को भी एकाग्र होने के लिए किसी एक विषय पर केंद्रित करना होता है। जिस प्रकार पशु की भाग-दौड़ को समाप्त करने के लिए उसे खूटे से बांधने की आवश्यकता होती है, उसी तरह मन की
881 द्रव्यध्येयं बहिर्वस्तु चेतनाचेतनात्कम् भावध्येयं पुनर्पायसन्निभध्यानपर्ययः ।।
- प्रस्तुत सन्दर्भ- तब होता है ध्यान का जन्म पुस्तक से उद्धृत.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org