Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ऐसी स्थिति में मान-अपमान, दया- करुणा, न्याय-अन्याय तो विस्मृत होता ही है, परन्तु कई बार तो क्षुधा तृषा, निद्रा-विश्राम, सुख-भोग की इच्छा का भी दमन हो जाता
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समवायांगसूत्र, भगवतीसूत्र 864
और सत्रह पर्यायवाची नाम बताए गए हैं।
1860 चिन्तामणि, भाग - 2, पृ. 83.
861
जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहों पवड्ढइ । ।
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865
कषायपाहुड में तो लोभ के बीस पर्यायवाची नाम मिलते हैं ।
स्थानांगसूत्र में कहा है- चार खड्डे, जो कभी नहीं भरते -- 1. श्मशान का खड्डा, 2. पेट का खड्डा, 3. समुद्र का खड्डा, 4. लोभ का खड्डा कितना भी डालो, परन्तु ये कभी पूर्ण नहीं होते | 866
इन सभी खड्डों में
भोजप्रबन्ध 7 में लिखा है- लोभ पाप की प्रतिष्ठा है, लोभ ही पाप की जननी है और लोभ ही पाप की मूल जड़ है, क्योंकि रागद्वेषोत्पत्ति वहीं से प्रारम्भ होती है।
गीता 68 में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि अन्तरात्मा अर्थात् अध्यवसायों के शुद्धिकरण हेतु संतोष - गुण ग्राह्य है । सन्तोष ही आत्मा का परम हितकारी, कल्याणकारी मित्र है। संसार में सन्तोषी सदा सुखी रहता है। समता अथवा सन्तोष के द्वारा लोभ या तृष्णा की वृत्ति को सर्वथा निर्मूल करना ही निर्लोभता अर्थात्
862
863 लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही
864
अहं भंते । लोभे इच्छा मुच्छा
I
उत्तराध्ययनसूत्र.
प्रस्तुत सन्दर्भ 'कषाय', साध्वी हेमप्रज्ञाश्री पुस्तक से उद्धृत, पृ. 35.
868
865 कामो राग णिदाणो
866
स्थानांगसूत्र.
867 लोभः प्रतिष्ठा पापस्य, प्रसूतिर्लोभ एव च। द्वेष-क्रोधादिजनको लोभ पापस्य कारणम् ।। - शुद्धयति चान्तरात्मा ।।
आत्मा
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इन दोनों सूत्रों में लोभ के क्रमशः चौदह
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• समवाओ, समवाय - 52, सूत्र - 1. भगवतीसूत्र, शं. - 12, उद्देशक - 5, सूत्र - 5. ।। - कषायचूर्णि, अध्याय - 9, गाथा - 89.
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भोजप्रबन्ध.
गीता, प्रस्तुत सन्दर्भ धर्मालंकार पुस्तक से उद्धृत, पृ. 54.
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