Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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प्रशमरतिप्रकरणवृत्ति
में लिखा है कि भीतरी शुद्धिकरण हेतु शास्त्रों में उपदिष्ट विधिवत् प्रवृत्ति होना चाहिए । यही निर्लोभता का मूल कारण है और लोभ का त्याग ही यथार्थ रूप से मुक्ति है ।
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति के अनुसार, मुक्ति यानी अलोभ, सन्तोष। धर्म के उपकरणों एवं देह तक की ममत्त्ववृत्ति का त्याग ही निर्लोभता अथवा शोच-धर्म है 1870
शुक्लध्यान के ध्याता को किसी प्रकार की कोई इच्छा, आकांक्षा या लोभ नहीं रहता, वह पूर्णरूपेण कषाय - मुक्त रहता है। आत्मा के निज स्वरूप में स्थित रहने के अतिरिक्त किसी भी वस्तु पर ममत्व न रखना ही मुक्ति अर्थात् निर्लोभता है।
श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा के शब्दों में- “निर्लोभी साधक अपरिग्रही होने से आकुलता - व्याकुलता, चिन्ता, भय आदि उन समस्त दुःखों से बच जाता है, धनलोलुप परिग्रही पुरुषों को ये दुःख सहन करने पड़ते हैं। निर्लोभी साधक निराकुल, निश्चिन्त निर्भयी होता है। मुक्तिगुण की अभिव्यक्ति लोभकषाय के क्षय से होती है, अतः मुक्तिगुण शुक्लध्यान का आलम्बन है । "871
आवश्यकचूर्णि872,
तत्त्वार्थसूत्र 73
योगशास्त्र74
अध्यात्मसार 875,
ध्यानविचार 76 ध्यानकल्पतरू' 77, ध्यानदीपिका 78 जैनसिद्धान्तदीपिका 9 तथा
869
870
अलोभः शौचलक्षण
871 जैनधर्म में ध्यान, कन्हैयालाल लोढ़ा, पृ. 130.
872 आलंबणाणि चत्तारि - खंती, मुत्ती, अज्जवं मद्दवंति ।। - आवश्यकचूर्णि
873 उत्तमः क्षमा-मार्दवऽऽर्जव - शौच
।। - तत्त्वार्थसूत्र - 9/6.
874
श्रुतावलम्बनपूर्वे 'ध्यायेच्छुक्लमथ क्षान्तिमृदुत्वार्जवमुक्तिभिः
875
876 ध्यानविचार–सविवेचन, आचार्य श्रीमदकलापूर्णसूरि, पृ. 35.
877
ध्यानकल्पतरू, अमोलक ऋषि, चतुर्थ शाखा, पत्र- 1–4, पृ. 373-380.
श्रुतज्ञानार्थसंबन्धात् . शान्ति-मुक्ति-आर्जव
878
मलप्रक्षालनादिष्वपि प्रवचनोक्तेन विधिनाऽनुष्ठेयम् । – प्रशमरतिप्रकरणवृत्ति, श्लोक - 171. ।। - तत्त्वार्थसिद्धिवृत्ति, सन्मार्ग प्रकाशन, ध्यानशतक, पृ. 123.
879
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योगशास्त्र - 11/13.
|| - अध्यात्मसार, अध्याय- 16, श्लोक - 73.
|| ध्यानदीपिका, श्लोक - 197, पृ. 375-375. ।। - जैनसिद्धान्तदीपिका, आचार्य तुलसी, पृ. 160.
880 चर्चासागर, पं. चम्पालाल विरचित, चर्चा संख्या - 164, पृ. 219.
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