Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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होने वाला जीव का व्यवहार योग कहा जाता है, वाचादि भी उसके ही आश्रित होता है तथा शरीर, वाचा और मन-द्रव्य से युक्त जीव का जो व्यापार है, वह मनोयोग है। यह मनोयोग केवली-छद्मस्थ को ही होता है। केवली तो योग निरोध रूप ही ध्यान करते हैं, क्योंकि वे निर्विकल्प होते हैं।
ध्यान के प्रकार
आर्तध्यान
रौद्रध्यान
धर्मध्यान
शुक्लध्यान
1. अनिष्ट संयोजक 2. इष्ट वियोजक 3. पीड़ा चिन्तन 4. निदान आर्तध्यान
1. हिंसानन्द 2. मृषानन्द 3. चौर्यानन्द 4. परिग्रहानन्द
1. पृथक्त्ववितर्क सविचार 2. एकत्ववितर्क अविचार 3. सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती 4. व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती
आज्ञाविचय
अपायविचय विपाकविचय
संस्थानविचय
सालम्बन
निरालम्बन
-
T
T
पदस्थ
पिण्डस्थ
रूपस्थ
रूपातीत
" अहवा तणुजोगा.
गाडि
...
नेयं जओ तेणं।। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 364-65.
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