Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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तृतीय अध्याय आर्तध्यान का स्वरूप एवं लक्षण
आर्तध्यान का स्वरूप -
शुभध्यान के स्वरूप का स्पष्टीकरण करने के पूर्व अशुभ-ध्यान के स्वरूप को समझना बहुत ही जरूरी है। इसके पीछे मुख्य प्रयोजन यह है कि अशुभ-ध्यान तथा उनके हेतुओं के निवारण के बिना तो शुभध्यान का प्रारम्भ होना भी शक्य नहीं है।
जिस प्रकार वस्त्र की मलिनता को दूर किए बिना उस पर नया रंग अच्छी तरह नहीं चढ़ सकता, उसी प्रकार मन की अथवा अध्यवसायों की मलिनता (अशुद्धि) को दूर किए बिना उस पर शुभध्यान का रंग चढ़ाना सम्भव नहीं है।'
सर्वप्रथम हमें आर्त्तध्यान के स्वरूप को समझना है। जब जीव आधि, व्याधि अथवा उपाधिस्वरूप किसी दुःखद स्थिति का अनुभव करता है, तब उसे 'मेरी पीड़ा शीघ्रातिशीघ्र दूर हो, मुझे सुख की प्राप्ति हो'- ऐसी जो विचारधारा प्रादुर्भाव होती है अथवा अन्तःकरण के द्वारा जो दुष्प्रणिधान किया जाता है, उसे आर्तध्यान कहते हैं।
इन्द्रिय-सुख की प्राप्ति तथा दुःख-मुक्ति की चिन्ता आर्तध्यान है। ज्ञानार्णव में चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा है।
'ऋते भवम् आतम्' – इसके अनुसार ऋत अर्थात् दुःख। वैसे ऋत सत्यता है, किन्तु दुःख की सत्यता को समझना भी ऋत है, अतः वियोग के दुःख के कारण ही आर्तध्यान होता है। दूसरे शब्दों में, पीड़ा या यातनाजन्य ध्यान आर्तध्यान है।
'ध्यानविचार सविवेचन- आचार्य कलापूर्णसूरि पुस्तक से उद्धृत, पृ. 12-13. (क) आवश्यकचूर्णि, गाथा- 2. (ख) अमणुण्णाणं ............... दोसमइलस्स।। - ध्यानशतक, गाथा- 6. ऋते भवमथार्त स्यादसध्यान शरीरिणाम्। दिङ्मोहोन्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ।। - ज्ञानार्णव- 23/21. * (क) ऋतं-दुःखम्, उक्तं हि - "ऋतशब्दोदुःखपर्यायवाच्याश्रीयते", ऋते भवमार्तम् ।
- उत्तराध्ययन, पाइअ टीकायाम्, अध्याय 30. (ख) ऋतं दुःखं तस्य निमित्तं तत्र वा भवम्। ____ऋते वा पीड़िते प्राणिनि भवमार्त्तम् ।। – पाक्षिकसूत्रवृत्तौ. (ग) आर्त्तरौद्रं च अत्र ऋतदुःखम्, तत्र भवमातम्, यदिवा अतिः, पीडा याचनं च तत्र
भवमार्त्तम्।। - योगशास्त्र, प्र. 3, गाथा 73. (घ) आर्त रौदमपध्यानम् पापकर्मोपदेशिता।
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