Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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देश, काल और आसन के ध्यान की चर्चा के उपरांत मुख्य रूप से मूल ग्रन्थ की गाथा क्रमांक चालीस-इकलातीस में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि श्रेष्ठ केवलज्ञान का लाभ तो पाप के उपशमन से ही होता है तथा जब तक योगों का समाहार नहीं होता, तब तक पाप भी उपशान्त नहीं होते। इस अपेक्षा से यह मानना चाहिए कि योगों के समाधान के लिए इन बाह्य-तत्त्वों का स्थान रहा हुआ है। इस प्रकार, मूल ग्रन्थकार तथा टीकाकार ने ध्यानसाधना के क्षेत्र में देश, काल, आसन आदि के महत्त्व को स्थापित किया है।379
अध्यात्मसार में इस बात की पुष्टि करते हुए यशोविजयजी लिखते हैं कि सिद्ध किया हुआ आसन कभी भी ध्यान का उपघात नहीं कर सकता है, अतः तदनुसार बैठे-बैठे, खड़े-खड़े अथवा लेटे-लेटे भी ध्यान कर सकते हैं।380
योगशास्त्र ग्रन्थ के कर्ता हेमचन्द्राचार्य ने प्रस्तुत ग्रन्थ के चतुर्थ प्रकाश की गाथा क्रमांक एक सौ चौबीस से एक सौ छत्तीस तक आसनों के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा है कि जिस आसन से लम्बे समय तक बैठने पर भी समाधि रहे, चित्त विचलित न हो- इस तरह के सुखासन में ही ध्याता को बैठना चाहिए।381
आदिपुराण में लिखा है- शरीर की जो-जो अवस्था (आसन) ध्यान का विरोध करने वाली न हो, उसी-उसी अवस्था में स्थित होकर मुनियों को ध्यान करना चाहिए। वे अवस्थाएं चाहे वीरासन, वज्रासन, गोदोहास, धनुरासन आदि क्यों न हों, अर्थात् खड़े होकर, बैठकर, सोकर भी ध्यान कर सकते हैं।382
ध्यानदीपिका में भी स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि पद्मासन, सिद्धासन या स्वस्तिकासन आदि जो आसन ध्यान में व्यवधान न डालें, जिस आसन से ध्यानसिद्धि सम्भव हो, उसी आसन में साधक को ध्यानमग्न होना चाहिए। एक बात यह भी ध्यान
379 (क) सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्ठासु।
वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा।। तो देस-काल-चेट्ठानियमो झाणस्स नत्थि समयंमि।
जोगाण समाहाणं जइ होइ तहा पयइयत्वं ।। - ध्यानशतक, गाथा- 40-41. (ख) अध्यात्मसार- 16/30. 380"सवाऽवस्था जिता जात न स्याद ध्यानोपघातिनी।
तया ध्यायेन्निषण्णो वा स्थितो वा शयितोऽथवा।। - अध्यात्मसार-16/29. 381 पर्यंक-वीर-वजाब्ज-भद्र-दण्डासनानि च। उत्कटिका-गोदोहिका-कायोत्सर्गस्तथाऽऽसनम्
स्याज्जंघ ................ ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत्।। - योगशास्त्र- 4/124-136. 982 पल्यंक इव दिध्यासोः कायोत्सर्गोऽपि सम्मतः । समप्रयुक्तसर्वाङ्गो द्वात्रिंशद्दोषवर्जितः । विसंस्थुलासनस्थस्य ......... सुखासनम् ।। - आदिपुराण- 21/69-75.
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