Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरण में ध्याता सयोगी या अयोगी ही होता है, अध्यात्मसार, योगशास्त्र 01 में भी यही माना गया है।
शुक्लध्यान के सन्दर्भ में श्वेताम्बर - परम्परा एवं दिगम्बर - परम्परा दोनों ही यह मानती हैं कि शुक्लध्यान केवल तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में ही सम्भव होता है । शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण तेरहवें गुणस्थान (सयोगी - केवली) में होते हैं और अन्तिम दो चरण चौदहवें गुणस्थान (अयोगी - केवली - दशा) में होते हैं ।
इस सम्बन्ध की विस्तृत चर्चा हम धर्मध्यान के ध्याताद्वार में भी कर चुके हैं।
अनुप्रेक्षा-द्वार अनुप्रेक्षा का अर्थ होता है- गहन चिन्तन करना । आत्मा के द्वारा विशुद्ध चिन्तन के माध्यम से सांसारिक विषय-विकारों का विनाश होता है। परिणामस्वरूप साधक प्रगति करता हुआ मोक्ष के अधिकार की योग्यता प्राप्त कर लेता है ।
ध्यान-साधना में अवस्थित रहने के लिए साधक के द्वारा ध्यानान्तरावस्था में धर्मध्यान और शुक्लध्यान की चार-चार अनुप्रेक्षाओं का आधार लिया जाता है। वे अनुप्रेक्षाएं क्रमशः इस प्रकार हैं
धर्मध्यान की अनुप्रेक्षाएं
अनन्तवर्त्तितानुप्रेक्षा, विपरिणामानुप्रेक्षा, अशुभानुप्रेक्षा और अपायानुप्रेक्षा 2 – इन चारों अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख आगमों में तो है ही, 03 परन्तु
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(क) उत्तमसंहनन (ख) उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ।
(ग) शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः । परे केवलिनः । । - तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 27-38, 39, 40.
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ध्याताऽयमेव शुक्लस्या - प्रमत्तः पादयोर्द्वयोः । पूर्वविद् योग्ययोगी च केवली परयोस्तयोः । । इदमादिमसंहनना एवालं पूर्ववेदिनः कुर्तम् । स्थिरतां न याति चित्तं कथमपि यत्स्वल्प - सत्त्वानाम् ।। धत्ते न खुल स्वास्थ्यं व्याकुलितं तनुमतां मनोविषयै । शुक्लध्याने तस्माद् नास्त्यधिकारोऽपसाराणाम् ।।
प्रस्तुत सन्दर्भ जैनसाधना-पद्धति में ध्यानयोग पुस्तक से उद्धृत, पृ. 270.
एतेच्चि पुव्वाणं पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा । दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो ।।
ध्यानतशतक, गाथा - 63-64.
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- अध्यात्मसार - 16/69.
योगशास्त्र - 4/2–3.
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