Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
236
संक्षेप में, रागादि भावों से विमुख करके सत्य तत्त्वों को सम्मुख लाने वाली कथा आक्षेपिणी-कथा है। कुमार्ग से विमुख करके सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाली कथा विक्षेपिणी-कथा है। वैराग्यभाव में अभिवृद्धि कराने वाली कथा संवेदनी -कथा है। संसार के प्रति उदासीन भाव पैदा करने वाली कथा निर्वेदनी-कथा है। 80
इस प्रकार, संक्षेप में धर्मकथा के भेदों का उल्लेख किया गया है।
आदिपुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य ने इक्कीसवें पर्व के श्लोक क्रमांक सतासी (87) के अन्तर्गत धर्मध्यान के आलम्बन का स्वरूप बताते हुए कहा है कि जो अतिशय बुद्धिमान् है, योगी है, जो बुद्धिबल से युक्त है, शास्त्रों के अर्थ का आलम्बन करने वाला है, जो धीर–वीर है और जिसने समस्त परीषहों को सह लिया है- ऐसे उत्तम मुनि शीघ्रातिशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त होते हैं।81 वाचना, पृच्छना, परियट्टना (परिवर्तन) और अनुप्रेक्षा (धर्मकथा)- ये चारों आलम्बन मन को आत्माभिमुख करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। संक्षेप में, इतना ही समझना है कि वाचना अर्थात् समझपूर्वक पढ़ना। यदि कोई कुशाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति है, तो वह अपनी शंका का समाधान स्वतः ही कर लेता है, लेकिन साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति को शंका उत्पन्न होती है, तो वह उसके निवारण के लिए गुरुजनों से समाधान प्राप्त करता है- यही प्रतिपृच्छना है।
कण्ठस्थ सूत्रों की बार-बार पुनरावृत्ति करते रहना ही परावर्तना है, ताकि कण्ठस्थ सूत्र विस्मृत न हो जाएं।
आगमों के अर्थों पर चिन्तन-मनन करना अनुप्रेक्षा है,82 उसको धर्मकथा के नाम से भी जाना जाता है। कुछ विद्वानों की मान्यता यह भी है कि संसार की अनित्यता का चिन्तन करना भी अनुप्रेक्षा है। इन चारों आलम्बनों से धर्मध्यान में वृद्धि, शुद्धि होती हैये मन को पुष्ट तथा शुद्ध बनाकर ध्यान में स्थिरता प्राप्त करवाते हैं।
शुक्लध्यान के आलम्बन
780 धर्मामृत अनगार- 7/88. 781 प्रज्ञापारमितो योगी ............ सूत्रार्थालम्बनो धीरः सोढ़ाशेषपरीषहः ।। - आदिपुराण- 2/87.
प्रवचनसारोद्धार, साध्वी हेमप्रभाजी, भाग- 1, पृ. 123-124.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org