Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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दशवैकालिक में कहा गया है कि क्रोध से प्रीति का नाश होता है। 13 क्रोध का उपशमन क्षमा से ही सम्भव है।
बृहत्कल्पभाष्य में तो यहां तक कहा गया है कि श्रमण-श्रमणियों के मध्य यदि कलह हो जाए, तो उसी समय क्षमायाचना द्वारा उसे शान्त कर देना चाहिए। बिना क्षमायाचना के न तो वे गोचरी जा सकते हैं, न स्वाध्याय कर सकते हैं और न ही विहारादि सम्भव है। 14 जब तक क्षमा का आदान-प्रदान नहीं हो जाता, तब तक वह श्रमण अथवा श्रमणी आराधक होकर भी विराधक की कोटि में गिना जाता है।
पं. सुखलाल संघवी ने क्षमा की साधना के पांच उपाय बताएं हैं1. अपने में क्रोध के निमित्त के होने या न होने का चिन्तन करना। 2. क्रोधवृत्ति के दोषों पर चिन्तन-मनन करना। 3. बाल-स्वभाव का विचार करना। 4. अपने किए हुए कर्म के परिणाम पर विचार करना। 5. क्षमा के गुणों का चिन्तन-मनन करना।815
शुक्लध्यान के साधक की मानसिक-वृत्ति में क्रोध उत्पन्न ही नहीं होता, चाहे कितने की क्रोध के प्रसंग उपस्थित हो जाएं, क्योंकि वह क्रोध-विजयी बन जाता है, जिससे उसका अन्तःकरण दया, करुणा, क्षमा-भावों से ओतप्रोत रहता है, इसलिए 'क्षमा'- यह शुक्लध्यानी का प्रथम आलम्बन कहलाता है।
2. मार्दव आलम्बन - ध्यानशतक ग्रन्थ में कहा गया है कि शुक्लध्यान का दूसरा आलम्बन मार्दव कहलाता है। इस आलम्बन से शुक्लध्यान में प्रगति होती है।816
मार्दव, अर्थात् मृदुता-गुण, इसका प्रकटीकरण मान-कषाय के क्षीण होने से होता
दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि मान-कषाय को मृदुता से जीतें।17
813 कोहो पीइं पणासेइ .... ......... || - दशवैकालिक- 8/37. . 81 बृहत्कल्पभाष्य-4/15. 815 तत्त्वार्थसूत्र, पं. सुखलाल संघवी, पृ. 208. 816 ध्यानशतक, गाथा- 69. 817 माणमद्दवया जिणे। - दशवैकालिक- 8/39.
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