Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ममत्वभाव और भौतिक सुख-साधनों पर निर्भर करती है, आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान की अभिव्यक्ति है। शुक्लध्यानवर्ती को तो आत्म-विकास प्रिय होता है, अतः वह भौतिक सुख-साधनों, पर-पदार्थों और आकांक्षाओ से परे होता है और कषाय को क्षीण करते हुए क्षमा, मार्दव, आर्जव और निर्लोभता का अवलम्बन प्राप्त कर साधना के क्षेत्र में प्रगति करता है।
__ आचारांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र औपपातिक 95, उत्तराध्ययनसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, मूलाचार'98, आदि आगम-ग्रथों में भी शुक्लध्यान के आलम्बनों का उल्लेख मिलता है।
यद्यपि उनमें संख्या-क्रम में भेद हैं, परन्तु विषय-वस्तु में कोई अन्तरं नहीं है। उपर्युक्त आगम-ग्रन्थों में दसविध धर्मों का भी वर्णन है। उन्हीं में से क्षमा, मार्दव, आर्जव और निर्लोभता- इन चार आलम्बनों को ध्यानशतक में शुक्लध्यान के आलम्बन माना गया है।
1. क्षमा-आलम्बन -
ध्यानशतक ग्रन्थ की गाथा क्रमांक उनहत्तर में शुक्लध्यान के आलम्बन का उल्लेख करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि विश्व के समस्त जीवों को आत्मवत् दृष्टि से देखें, तो किसी भी जीव पर क्रोध के अभाव में क्षमा-गुण का प्रकटीकरण होगा।99
उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर देव ने कहा है कि मोह से आत्मा नीचे गिरती है।800 क्रोधी व्यक्ति स्वयं और दूसरे- दोनों के पतन का कारण बनता है।
792 आचारांगसूत्र- 1/6/5. 793 स्थानांगसूत्र- 4/1/72. 794 समवायांगसूत्र- 10/1. 795 औपपातिकसूत्र (तपविवेचनान्तर्गत)- 30. 796 उत्तराध्ययनसूत्र-9/57. 797 तत्त्वार्थसूत्र-9/6. 798 मूलाचार- 11/15.
ध्यानशतक, गाथा- 69. 800 अहे वयइ कोहेण। - उत्तराध्ययनसूत्र. 801 तत्रोपतापकः क्रोधोवैरस्य कारणम् .. ........ सुखार्गला।। - योगशास्त्र- 4/9.
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