Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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संक्षेप में, इतना ही समझना है कि जीव शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण में शुक्ललेश्यायुक्त तृतीय चरण में परमशुक्ललेश्यायुक्त तथा अन्तिम चरण में लेश्यारहित होता है।
चार ध्यानों में लेश्या -आगम-साहित्य में अनेक स्थानों पर लेश्या शब्द का प्रयोग हआ है। आत्मा से कर्म-वर्गणाओं का संयोग हो जाना लेश्या है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में लेश्या की परिभाषा करते हुए आचार्य अंकलक लिखते हैं- कषायोदय से रंजित योग-प्रवृत्ति लेश्या है। आत्मा के अशुद्ध और शुद्ध अध्यवसायों की दृष्टि से इसे कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के नामों से जाना जाता है।659 लेश्या के छ: भेदों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है1. कृष्णलेश्या - कृष्णलेशी जीव के अध्यवसायों में कषायों की तीव्रतम स्थिति होती है। 2. नीललेश्या - नीललेशी जीव में ऐसे अध्यवसाय पैदा होते हैं, जिससे वह दूसरों से द्वेष, ईर्ष्या, असहिष्णुता, छल-कपट, चोरी आदि करने लगता है। 3. कापोतलेश्या - कापोतलेशी जीवों में भी कषायों के परिणाम तो तीव्र होते हैं, लेकिन वे कृष्ण, नील की अपेक्षा कम होते हैं। 4. तेजोलेश्या - तेजोलेश्या वाली आत्मा में ऐसे अध्यवसायों का आविर्भाव होता है, जिससे वह विनयी, विवेकी और नम्र बन जाता है, उसे कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का भान होने लगता है तथा वह दया-दान लोकहित की प्रवृत्ति में तत्पर रहता है। 5. पद्मलेश्या - पद्मलेशी जीव के अध्यवसाय तेजोलेश्या वाले जीवों के अध्यवसायों से भी अधिक शुभ होते हैं। इस लेश्या में कषाय मन्द हो जाती है तथा जीव यम-नियम-शील के पालन में उद्यमशील बनता है, प्रशान्त चित्त वाला होता है। 6. शुक्ललेश्या - शुक्ललेशी जीव के मनोयोग, वचनयोग एवं काययोग की प्रवृत्ति में सरलता और सहजता आ जाती है। उसकी कषाय उपशान्त रहती है, उसमें
657 द्वयो शुक्ला तृतीये च लेश्या सा परमा मता। ___ चतुर्थः शुक्लभेदस्तु लेश्यातीतः प्रकीर्तितः ।। - अध्यात्मसार- 16/82. 658 ध्यानदीपिका, पृ. 391. 659 कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या। - तत्त्वार्थराजवार्त्तिक- 2/6.
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