Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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समस्त दुःखों की जड़ यह तृष्णा ही है। विषय-वासनाओं, कामनाओं को जगाने वाली इच्छा कामतृष्णा कही जाती है। अपने अस्तित्व को सदा बनाए रखने की तृष्णा भवतृष्णा कहलाती है। दुःख संवेदनरूप विषयों के सम्पर्क को लेकर जो विनाश-सम्बन्धी इच्छा उदित होती है, वह विभवतृष्णा के रूप में जानी जाती है।
तृष्णा बिना पेंदे का रिक्त पात्र है, उसे भरने के लिए कोई कितना ही जल डाले, वह कभी नहीं भरता। तृष्णा की पूर्ति के लिए कोई कितना ही प्रयत्न करे, वह पूर्ण नहीं होती। दूसरे शब्दों में, अपने से भिन्न पर-पदार्थों को पाने की लालसा तृष्णा कहलाती है। जो साधक तृष्णा पर विजय प्राप्त कर लेता है, उसके दुःख उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं, जिस प्रकार कमल के पत्ते से जल गिर जाता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है कि संसार की तृष्णा भयंकर फल देने वाली विष-वेल है।688
__ जैनदर्शन ने उपर्युक्त कामतृष्णा, भवतृष्णा एवं विभवतृष्णा- इन तीनों को ही आर्त्तध्यान के चिन्तन का विषय माना है। कहीं-कहीं इसे आर्तध्यान का आलम्बन भी कहा गया है, क्योंकि इच्छा, आकांक्षा, अपेक्षा आदि के आधार पर ही आर्त्तध्यान होता है
और यह सभी तृष्णा के ही विभिन्न रूप हैं। दूसरे शब्दों में, शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि विषयों का वियोग न हो जाए, इनका संयोग बना रहे, इस शरीर में किसी भी प्रकार की व्याधि न हो, रोग पीड़ित होने पर उसके वियोग की पुनः-पुनः चिन्तन करना, भविष्य में क्या-क्या मिलना चाहिए, इसकी कल्पना- इन भावों के साथ धर्मध्यान आदि क्रिया करना- ये सब आर्तध्यान के मुख्य कारण हैं।
प्रशमरतिप्रकरण में लिखा है कि इष्ट का वियोग, अनिष्ट का संयोग, सांसारिक-सुख पाने के लिए समग्र विश्व के विषयों की अभीप्सा, उनका वियोग न हो, इसलिए रात-दिन परिश्रम करना, बार-बार उसी चिन्तन में लगे रहना- ये सब आर्तध्यान के ही चिन्तन हैं।689
शरीर में वेदना न हो और यदि वेदनाग्रसित है, तो किसी भी उपाय से इसका वियोग हो जाए, निरन्तर इसी में डूबे रहना आर्त्तध्यान है, लेकिन उत्तराध्ययनसूत्र में
888 भवतण्हा लया वुत्ता भीमा भीमफलोदया।
तमुद्धरित्तु जहानायं विहरामि महामुणी।। - उत्तराध्ययनसूत्र- 23/48. 689 इष्टवियोगाप्रियसंप्रयोग... ......... || - प्रशमरतिप्रकरण- 124, 125.
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