Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ज्ञानार्णव में लिखा गया है कि जब व्यक्ति क्रोधकषाय से युक्त होता है, तब उसके शरीर में निम्नांकित परिवर्तन होते हैं, जैसे- आग की चिंगारी के समान लाल नेत्र, भृकुटियों की कुटिलता, शरीर की भयानक आकृति, कम्पित होना और पसीने से तर-बरत होना आदि ।896
__योगशास्त्र में बताया गया है कि क्रोधाग्नि पहले उसे ही जलाती है, जिसमें क्रोध उत्पन्न हुआ है, तत्पश्चात् दूसरे को जलाती है।697
जैनकर्मसिद्धान्त के अनुसार, तीव्रता तथा अल्पता के आधार पर क्रोध के चार प्रकार माने गए हैं, जो इस प्रकार हैं698_
1. अनन्तानुबंधी-क्रोध (तीव्रतम) - पत्थर में पड़ी रेखा के समान क्रोध, जो किसी के प्रति एक बार मनमुटाव हो जाए, तो आजीवन बना रहता है। 2. अप्रत्याख्यानी-क्रोध (तीव्रतर) - सूखे तालाब में खींची रेखा के समान क्रोध, जो ज्यादा से ज्यादा वर्षभर में किसी के समझाने-बुझाने पर शान्त हो जाता है। 3. प्रत्याख्यानी-क्रोध (तीव्र) - बालू रेती में खींची रेखा के समान, जो हवा के झोंके के आते ही मिट जाती है, उसी तरह यह क्रोध भी ज्यादा से ज्यादा चार महीने ही टिकता है और फिर शान्त हो जाता है। 4. संज्वलन-क्रोध (अल्प) - पानी में खींची रेखा के समान, जो शीघ्र ही मिट जाती है। इस क्रोध से युक्त प्राणी का क्रोध भी ज्यादा समय तक नहीं रहता।699
जैनसिद्धान्तदीपिका में भी प्रस्तुत उदाहरण मिलते हैं। 00
बौद्धदर्शन में भी क्रोध के तीन प्रकार बताए गए हैं?011. पत्थर में खींची रेखा के समान 2. पृथ्वी में खींची रेखा के समान 3. पानी में खींची रेखा के समान। दोनों परम्पराओं में प्रस्तुत दृष्टान्त–साम्य प्रतीत होता है। .
696 विस्फुलिङ्गिनिभे-नेत्रे भ्रूवक्रा भीषणाकृतिः।
कम्पस्वेदादिलिङ्गिानि रौद्रे बाह्यानि देहिनाम् ।। - ज्ञानार्णव- 24/36. 697 उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम् .......... || - योगशास्त्र, प्रकरण- 4, श्लोक- 10.
वध कोहे पण्णते, त जहा-अणताणुबंधी कोहे, अपच्चक्खाणकसाए कोहे, पच्चखाणावरणे कोहे, संजलणे कोहे। - स्थानांगसूत्र, स्थान- 4, उद्देशक- 1, सूत्र- 84. 699 (क) जलरेणुपढ़विपव्वय-राईसरिसो चउव्विहो कोहो .... || - प्रथम कर्मग्रन्थ- 19.
(ख) संज्वलनादिभिः ।। – योगशास्त्र- 4/67. 700 पर्वत-भूमि-रेणु-जलराजि स्वभावः क्रोधः।। - जैनसिद्धान्तदीपिका, प्रकरण- 4, श्लोक- 24. " अंगुत्तरनिकाय-3/130.
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