Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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स्थानांगसूत्र के अनुसार, पठित सूत्रों को बार-बार आवर्तन करते हुए हृदयस्थ कर लेना ही परावर्तना है। 55
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में लिखा है कि धर्मध्यान के आलम्बनों के रूप में तीसरा स्थान अनुप्रेक्षा का है। संदेह सहित सूत्र तथा अर्थ का मन से चिन्तन करना ही अनुप्रेक्षा है।756
अध्यात्मसार में कहा गया है कि उपार्जित ज्ञान को स्थिर रखने के लिए पुनः-पुनः उसको दोहराना- यह धर्मध्यान का आलम्बन है। इससे ज्ञान ताजा बना रहता है, विस्मृति और स्खलन से बचाव होता है, मन शुभ प्रवृत्ति में जुड़ा रहता है।"57
ध्यानदीपिका के अनुसार, पूर्व में याद किए हुए सूत्रादि कहीं भूल न जाएं, इसलिए पुनः-पुनः उनका अभ्यास करना ही परावर्तना है। 58
धर्मामृत (अनगार)/59 में लिखा गया है कि ज्ञात या निश्चित अर्थ का मन से बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
अनुप्रेक्षा ही अन्तर्जल्प या आत्मचिन्तन है। वाचनादि में बहिर्जल्प (बाहरी बातचीत) होता है, जबकि अनुप्रेक्षा में मन में चिन्तन चलने से अन्तर्जल्प होता है। 'मूलाचार टीका' में अनित्यता आदि के बार-बार चिन्तन को अनुप्रेक्षा कहा गया है और उसे स्वाध्याय का भेद माना है। 60
ध्यानविचार', ध्यानकल्पतरू'62 में भी इसी बात का समर्थन किया गया है। गुरु द्वारा प्रदत्त सूत्र तथा अर्थ कण्ठस्थ हों, वे विस्मृत न हो जाएं- इस उद्देश्य से तथा कर्म-निर्जरा के लक्ष्य से बार-बार पठित पाठ का परावर्तन करना- यह धर्मध्यान का आलम्बन है।
755 स्थानांगसूत्र, मधुकर मुनि- 4/1/67. 158 सन्देहे सति ग्रन्थार्थयोर्मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा। - तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति- 25. 757 अध्यात्मसार- 16/31. 758 ध्यानदीपिका, श्लोक- 118, पृ. 275. 759 साऽनप्रेक्षा यदभ्यासोऽधिगतार्थस्य चेतसा।
स्वाध्यायलक्ष्य पाठोऽन्तर्जल्पामाऽत्रापि विद्यते।। - धर्मामृत अनगार- 7/86. 760 जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन, डॉ विजयकुमार, पृ. 114. 761 ध्यानविचार-सविवेचन, आ.- कलापूर्णसूरि, पृ. 20.. 762 ध्यानकल्पतरू, तृतीय शाखा, तृतीय पत्र, पृ. 228-230.
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