Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ध्यानदीपिका के अनुसार, प्रज्ञाशील व्यक्ति तो शंका का समाधान स्वयं कर लेता है, परन्तु अल्पमतिज्ञ व्यक्ति को पड़ने के समय यदि कोई शंका हो जाए, तो गुरु आदि के निकट जाकर विनयभाव से संशयों का निवारण करना पृच्छना -आलम्बन है।49
धर्मामृत (अणगार) में लिखा है- पृच्छना अर्थात् पूछना, प्रश्न आदि करना। मूलपाठ और अर्थ- दोनों के विषय में, क्या यह ऐसा है अथवा नहीं- यह संशय दूर करने के लिए, अथवा, यह ऐसा ही है- इस प्रकार के निर्णय को दृढ़ करने के लिए प्रश्न करना पृच्छना है। 50
ध्यानविचार'51, ध्यानकल्पतरू'52 आदि में लिखा है- यथार्थ रूप से पूर्वापर सम्बन्ध समझ में न आने पर सविनय प्रार्थना करके जिज्ञासा का समाधान करने के लिए गुरु से प्रश्न पूछना, पृच्छना-आलम्बन कहलाता है।
संक्षेप में, जिज्ञासाओं का प्रस्तुतिकरण करना पृच्छना है।53
3. परिवर्तना-आलम्बन - ध्यानशतक के अन्तर्गत धर्मध्यान के तृतीय आलम्बन का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि पूर्वपठित एवं पूछे हुए सूत्र तथा अर्थ की पुनः-पुनः आवृत्ति न की जाए, तो विस्मृत होने की सम्भावना बनी रहती है। कहीं विस्मृत न हो जाए, इस हेतु पढ़े हुए, सुने हुए ज्ञान को पुनः पुनः दोहराना ही परिवर्तना
नियम यह है कि मन जैसा स्मरण करता है, वही अन्तःकरण में अंकित हो जाता है। जैसे विद्यार्थी पूर्वपठित विषय को स्मृति में रखने के लिए बार-बार पुनरावर्तन करता है, वैसे ही साधक को अध्यात्म-क्षेत्र में प्रगति करने के लिए ज्ञान की पुनः पुनः परावर्तना करना चाहिए, साथ ही तदनुसार आचरण किया जाए, तो उसके संस्कार दृढ़ बन जाते हैं। संस्कारों की दृढ़ता साधक को धर्म की ओर उत्प्रेरित करती है, अतः धर्मध्यान में सहायकभूत होने से परावर्तना भी धर्मध्यान का आलम्बनरूप है।
749 ध्यानदीपिका, श्लोक- 118. 750 प्रच्छनं संशयोच्छित्त्यै निश्चितद्रढनाय वा।
प्रश्नोऽधीति प्रवृत्त्यर्थत्वादधीतिरसावपि।। - धर्मामृत (अणंगार)- 9/84. 751 ध्यानविचार–सविवेचन, पृ. 20. 752 ध्यानकल्पतरू, तृतीय शाखा, द्वितीय पत्र, पृ. 227. 753 प्रस्तुत अंश 'आर्हती दृष्टि', समणी मंगलप्रज्ञा, पुस्तक से उद्धृत, पृ. 68. 754 ध्यानशतक- 42.
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