Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
219
स्थान पर और अधिक लगने लग जाती है, यही स्थिति इच्छाओं से तृप्ति पाने के सन्दर्भ में है।
विसुद्धिमग्ग के अनुसार, भीतर जटा (तृष्णा, इच्छा) है, बाहर जटा है, चारों ओर से यह सब प्रजा जटा से जकड़ी हुई है।683
किसी ने कहा है- 'तृष्णा न जीर्णाः व्यमेव जीता', अर्थात् तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। व्यक्ति वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है, अंग गलित होने लगते हैं, सिर के बाल सफेद हो जाते हैं, मुंह की दन्तपंक्ति गिर जाती है, बिना लकड़ी के सहारे चल नहीं सकता, फिर भी आश्चर्ययुक्त बात तो यह है कि वह इच्छाओं या आकांक्षाओं को नहीं छोड़ता है।684
बिना इच्छा, आकांक्षा और अपेक्षा को छोड़े तृष्णा से मुक्त होना सम्भव नहीं है, अतः संक्षिप्त में कहें, तो आर्तध्यान के चिन्तन का आधार व्यक्ति की तृष्णा ही होती है। आर्त्तध्यान पर विजय पाने के लिए तृष्णा का त्याग आवश्यक है।
उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् महावीर ने कहा है कि जो व्यक्ति संसार की पिपासा, तृष्णा से रहित है, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है।685
मानव जब तृष्णा से पीड़ित होता है, उस समय यदि उसे सोना-चांदी तथा धनधान्य आदि से भरा समस्त विश्व भी दे दिया जाए, तब भी वह सन्तुष्ट नहीं होगा।686
बौद्ध-परम्परा के महासतिपट्ठान में यह माना गया है कि तृष्णा के त्याग के बिना निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं। यह तृष्णा तीन प्रकार की होती है
1. कामतृष्णा, 2. भवतृष्णा ,
2. विभवतृष्णा ।87 भोग्यवस्तु तथा भोक्ता का वियोग न हो, उनका उच्छेदन न हो- यह लालसा तृष्णा कहलाती है। यह लालसा जितनी गहरी होती है, उतना ही गहरा दुःख होता है।
683 अन्तो जटा बहि जटा, जटाय जटिता पजा। - विसुद्धिमग्ग. 684 अंग गलितं पलीतं मुंड, दशन विहिनं जातं तुण्डम्
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डम्, तदपि न मुञ्चत्यासा पिण्डम् ।। - भर्तृहरि 685 हललोए निप्पिवासस्सनत्थि किंचि वि दुक्करं।। - उत्तराध्ययनसूत्र- 19/45. 06 कसिणं पि जो इमं लोयं पडिपण्णं ................. || - वही-8/16. 887 सेय्यथिदं, कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा। - महासतिपट्टान.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org