Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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के ध्याता मरकर तिर्यंचगति को प्राप्त होते हैं और जन्म-मरण की श्रृंखला के कारण संसार - परिभ्रमण में वृद्धि होती है । 674
रौद्रध्यानी जीव की राग-द्वेष और मोह की परिणति अतितीव्र होती है, इसलिए रौद्रध्यान का ध्याता मरकर नरकगति का अधिकारी बनता है 1975
धर्मध्यानी जीव के कर्मफल का स्वरूप बताते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि शुभास्रव, संवर, निर्जरा तथा देवलोक की ऋद्धि धर्मध्यानवर्त्ती जीवों को प्राप्त होती है। 676
शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों का फल अनुत्तर देवलोक का सुख तथा अन्तिम दो चरणों का फल निर्वाण अर्थात मोक्ष की प्राप्ति होती है। 677
दशवैकालिकचूर्णि के अन्तर्गत भी यही कहा गया है कि आर्त्तध्यान का फल तिर्यंचगति, रौद्रध्यान का फलं नरकगति, धर्मध्यान का फल देवगति और शुक्लध्यान का फल सिद्धगति अर्थात् मोक्षसुख होता है। 578
आर्त्तध्यान के चिन्तन के विषय
जैसा कि हमने पूर्व में लिखा है कि आर्त्तध्यान का मूलभूत कारण व्यक्ति की इच्छाएं, आकांक्षाएं तथा अपेक्षाएं होती हैं। आर्त्तध्यान में सामान्यतया व्यक्ति यह चिन्तन करता है कि मुझे अमुक परिस्थिति, व्यक्ति या वस्तु की प्राप्ति हो - इस प्रकार वह चाह और चिन्ता में जीता है। इसी को बौद्ध - परम्परा में तृष्णा कहा गया है और वे इस तृष्णा को निर्वाण में बाधक मानते हैं ।
बौद्ध - दर्शन के अनुसार, जन्म-मरण का कारण तृष्णा है। राग, द्वेष एवं मोह से तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णा से ही राग, द्वेष और मोह पनपता है। उन राग-द्वेष से
674 (क) एयं चउव्विहं राग-दोस- मोहांकियस्स जीवस्स ।
अट्ठज्झाणं संसारवद्धणं तिरियगइमूलं । ।
(ख) अमितगति श्रावकाचार, परि. 15.
675 एयं चउव्विहं राग-दोस मोहांकियस्स जीवस्स ।
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रोद्दज्झाणं संसारवद्वण नरयगइमूलं ।। - ध्यानशतक, गाथा- 24.
होंति सुहास-संवर - विणिज्जराऽमरसुहाइं विउलाई । झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ।। 677 तेय विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहं च ।
दोहं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं । । - ध्यानशतक, गाथा- 94. 'अद्वेण तिरिक्खगई रूद्दज्झाणेण गम्मतीनरयं ।
धम्मेणदेवलोयं सिद्धिगई सुक्कज्झाणेणं । । - दशवैकालिकचूर्णि, अ. - 1/1.
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ध्यानशतक, गाथा- 10.
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ध्यानशतक, गाथा - 93.
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