Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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लिप्त व्यक्ति शुभाशुभ कर्म करता रहता है और कर्म के परिणामस्वरूप जन्म-मरण होता रहता है। राग-द्वेष का निरोध होने पर जन्म-मरण की परम्परा का भी निरोध हो जाता
दूसरे शब्दों में, राग-द्वेष का निरोध भव (जन्म-मरण) का निरोध होता है और भव का निरोध ही निर्वाण है।79 राग, द्वेष और मोह से वियोग पाना ही निर्वाण है।680 निर्वाण बुझे हुए दीपक के समान है।
____ भगवान बुद्ध ने कहा है- 'भिक्षुओं ! जब तक दीए में तेल और बाती है, तब तक दीया जलता है और इन दोनों के अभाव में दीया बुझ जाता है, ठीक उसी प्रकार तृष्णा के क्षय से जन्म-मरण की क्रिया भी समाप्त हो जाती है, वेदनाएं शान्त हो जाती हैं।681
सामान्यतया, सब यह मानते हैं कि तृष्णा दुःख का कारण है और इसलिए वे वासना की पूर्ति के माध्यम से तृष्णा की सन्तुष्टि चाहते हैं, किन्तु हम यह भी जानते हैं कि व्यक्ति की तृष्णा अथवा आकांक्षा, अपेक्षा आदि कभी पूरी नहीं होती है, एक इच्छा या आकांक्षा के पूरी होने से पहले ही दूसरी आकांक्षा या इच्छा जन्म ले लेती है।
भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र82 में कहा है- 'इच्छा हु आगाससमा अणंतिया', अर्थात् मनुष्य की इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। जैसे आकाश का कहीं आर-पार नहीं है, वैसे ही इच्छाओं का भी कहीं अन्त नहीं है। मनुष्य एक इच्छा को पूरी करना प्रारंभ करता है, उस इच्छा को वह पूरी भी नहीं कर पाता कि अन्य अनेक नई इच्छाएं जाग्रत हो जाती हैं। इच्छाएं प्याज के समान हैं। जब प्याज का ऊपरी छिलका उतारते हैं, तो उस छिलके के नीचे पुनः एक छिलका आ जाता है, दूसरे छिलके को उतारते ही फिर तीसरा छिलका आ जाता है, जैसे-जैसे छिलके उतारते जाते हैं, वैसे-वैसे पुनः नवीन छिलकां प्रकट होता जाता है, ठीक ऐसी ही स्थिति इच्छा की भी है। एक इच्छा को पूरी करते हैं, तो उसी के पश्चात् पुनः एक नवीन इच्छा जाग्रत हो जाती है, फिर दूसरी, तीसरी, चौथी- इस प्रकार कोई भी इच्छा अन्तिम नहीं होती है। ज्यों-ज्यों समुद्र के खारे पानी को पिया जाए, त्यों-त्यों प्यास शान्त होने के
679 संयुक्तनिकाय, पृ. 117. 680 यो खो आतुसो दोसक्खयो मोहक्खोग इति इन्द्रं पुचाति निब्बानं । – सुत्तनिपात- 5/11.
मज्झिमनिकाय- 1/3/7. 682 उत्तराध्ययनसूत्र.
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