________________
212
संक्षेप में, इतना ही समझना है कि जीव शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण में शुक्ललेश्यायुक्त तृतीय चरण में परमशुक्ललेश्यायुक्त तथा अन्तिम चरण में लेश्यारहित होता है।
चार ध्यानों में लेश्या -आगम-साहित्य में अनेक स्थानों पर लेश्या शब्द का प्रयोग हआ है। आत्मा से कर्म-वर्गणाओं का संयोग हो जाना लेश्या है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में लेश्या की परिभाषा करते हुए आचार्य अंकलक लिखते हैं- कषायोदय से रंजित योग-प्रवृत्ति लेश्या है। आत्मा के अशुद्ध और शुद्ध अध्यवसायों की दृष्टि से इसे कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के नामों से जाना जाता है।659 लेश्या के छ: भेदों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है1. कृष्णलेश्या - कृष्णलेशी जीव के अध्यवसायों में कषायों की तीव्रतम स्थिति होती है। 2. नीललेश्या - नीललेशी जीव में ऐसे अध्यवसाय पैदा होते हैं, जिससे वह दूसरों से द्वेष, ईर्ष्या, असहिष्णुता, छल-कपट, चोरी आदि करने लगता है। 3. कापोतलेश्या - कापोतलेशी जीवों में भी कषायों के परिणाम तो तीव्र होते हैं, लेकिन वे कृष्ण, नील की अपेक्षा कम होते हैं। 4. तेजोलेश्या - तेजोलेश्या वाली आत्मा में ऐसे अध्यवसायों का आविर्भाव होता है, जिससे वह विनयी, विवेकी और नम्र बन जाता है, उसे कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का भान होने लगता है तथा वह दया-दान लोकहित की प्रवृत्ति में तत्पर रहता है। 5. पद्मलेश्या - पद्मलेशी जीव के अध्यवसाय तेजोलेश्या वाले जीवों के अध्यवसायों से भी अधिक शुभ होते हैं। इस लेश्या में कषाय मन्द हो जाती है तथा जीव यम-नियम-शील के पालन में उद्यमशील बनता है, प्रशान्त चित्त वाला होता है। 6. शुक्ललेश्या - शुक्ललेशी जीव के मनोयोग, वचनयोग एवं काययोग की प्रवृत्ति में सरलता और सहजता आ जाती है। उसकी कषाय उपशान्त रहती है, उसमें
657 द्वयो शुक्ला तृतीये च लेश्या सा परमा मता। ___ चतुर्थः शुक्लभेदस्तु लेश्यातीतः प्रकीर्तितः ।। - अध्यात्मसार- 16/82. 658 ध्यानदीपिका, पृ. 391. 659 कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या। - तत्त्वार्थराजवार्त्तिक- 2/6.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org