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________________ लेश्या के सन्दर्भ में जैनेंद्रसिद्धान्तकोश में कहा गया है कि जीव को कर्म-वर्गणाओं से लिप्त करने वाला हेतु लेश्या है। "0 पंचसंग्रह 51 में भी यही लिखा है कि जैसे आम–पिष्ट से मिश्रित गेरू मिट्टी के लेप द्वारा दीवार रंगी जाती है, वैसे ही शुभ-अशुभ भावरूप लेश्या के माध्यम से आत्मा के परिणाम लिप्त होते हैं।652 __ स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, प्रज्ञापना 55 उत्तराध्ययन56, आदि आगम ग्रन्थों में लेश्या के छ: प्रकारों का उल्लेख मिलता है। इन लेश्याओं के नाम इस प्रकार हैं- कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । ध्यानशतक की गाथा क्रमांक उन्नबे (89) में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने शुक्लध्यान में कौन-कौनसी लेश्या होती है- इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण में शुक्ललेश्या, तृतीय चरण में परमशुक्ललेश्या होती है, किन्तु शुक्लध्यान का अन्तिम चरण लेश्यातीत होता है। कुछ विचारकों का कहना है कि शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरणों में जीव अलेशी होता है, अर्थात् लेश्या से परे होता है, केवल प्रथम दो चरणों में हम लेश्या मान सकते हैं। चूंकि तृतीय चरण में स्थूल और सूक्ष्म- दोनों ही मनोयोग निरुद्ध हो जाते हैं, अतः शुक्लध्यान के तीसरे तथा चौथे चरण में जीव को अलेशी मानना चाहिए। प्रथम चरण में विर्तक और विचार होने से तथा द्वितीय चरण में मात्र वितर्क होने से लेश्या की सत्ता मानना चाहिए, जबकि ध्यानशतक के कर्ता ने यह माना है कि शैलेशी अवस्था में स्थित आत्मा सुमेरु पर्वत से भी अधिक निष्प्रकम्प होने के कारण उसमें निर्विकल्प परमशुक्ल-अवस्था होती है, अतः शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों में ही शुक्ललेश्या की संभावना मान सकते हैं। अध्यात्मसार:57, ध्यानदीपिका 58 में भी इसी बात की पुष्टि की गई है। 650 जैनेंद्र शब्दकोश, भाग- 3, पृ. 422. 651 पंचसंग्रह- 1/143. 652 प्रस्तुत सन्दर्भ लेश्या और मनोविज्ञान पुस्तक से उद्धृत, पृ. 25. 653 छलेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा–कण्हलेसा, णीललेसा, तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा। - स्थानांगसूत्र, मधुकरमुनि- 6/47. समवायांग, 6 सम. 059 प्रज्ञापनासूत्र, पद- 17. उत्तराध्ययन, अध्याय- 34. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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