________________
210
ध्यानशतक के सम्पादकीय में लिखा है कि जिस प्रकार शुक्लध्यान के लक्षण और आलम्बन शुक्लध्यान की अन्तिम स्थिति तक रहते हैं, उसी प्रकार अनुप्रेक्षाएं अन्तिम समय तक नहीं रहती हैं, कारण यह है कि अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं की आवश्यकताएं वहां होती है, जहां अधूरापन हो, समस्या का समाधान ढूंढना हो, विकार या अशुद्धि को समाप्त करना हो। यह स्थिति मात्र शुक्लध्यान के प्रथम चरण 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' तक ही रहती है। शुक्लध्यान के अगले चरणों में पूर्ण निर्विकार-अवस्था आ जाती है, अतः अनुप्रेक्षा की आवश्यकता नहीं रहती है।643
परमात्मप्रकाश में कहा गया है कि निर्मल चित्त में परमात्मा के दर्शन ठीक उसी प्रकार होते हैं, जिस प्रकार निर्मल आकाश में सूर्य के 1644
इस प्रकार का ध्यान करने वाला योगी अन्त में स्वयं ही निर्मल परमात्मा बन जाता है।
लेश्या-द्वार - चित्त में उत्पन्न विषय-विकार के विचार को लेश्या कहते हैं। जिनके कारण जीव कर्मलिप्त होता है, उन्हें स्थानांगवृत्ति में लेश्या कहा है।645
____ आचारांगसूत्र में लिखा है- लेश्या, अर्थात् आत्मा का परिणाम, अध्यवसाय -विशेष है।646 लेश्या के स्वरूप के सन्दर्भ में जैन-चिन्तकों में कुछ विभिन्नताएं हैं
1- लेश्या योग-परिणाम है।647 2- लेश्या कर्म-विपाक है।648 3- लेश्या कषाय-रूप है।649
643 ध्यानशतक, सं. - कन्हैयालाल लोढ़ा, पृ. 116. 64 परमात्मप्रकाश- 1/1/9. 645 (क) लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या। - स्थानांगवृत्ति, पत्र- 29.
(ख) लिंपई अप्पीकीरई ............. | - गो. जी./अ. 15/गा. 489. 646 अध्यवसाये, आत्मनः परिणाम विशेषे, अन्तःकरणवृत्तौ। 647 योगपरिणामो लेश्या। - स्थानांगवृत्ति, पत्र- 29. 648 कर्म निष्यन्दो लेश्या। - उत्तराध्ययन की बृहवृत्ति, अध्याय- 34 की टीका. 649 ते च परमार्थतः कषाय-स्वरूपा एवं। - पण्णवणा, पद- 17, मलयगिरी टीका.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org