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________________ 209 स्थानांगसूत्र के अनुसार, वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार करना ही विपरिणामानुप्रेक्षा है।635 अध्यात्मसार 36 में उपाध्याय यशोविजयजी ने कहा है कि संसार की प्रत्येक वस्तु परिणमनशील है। चेतन अथवा अचेतन पदार्थों की अस्थिरता का चिन्तन इस प्रकार करना चाहिए कि सर्वस्थान अशाश्वत हैं, सर्वद्रव्य परिणामी हैं और सर्वपर्याय परिवर्तनशील हैं।637 संसार नाशवान् है, अतः भौतिक साधनों का आकर्षण भी क्षणिक है। जो किसी समय बहुत बड़ी सम्पत्ति का मालिक था, लेकिन आज उसके पास कुछ नहीं है। बड़े-बड़े महलों व मजबूत और अभेद्य किले आज वीरान खण्डहर पड़े हैं। बचपन में खेल रुचिकर लगते थे, पर आज नहीं, जहां जवानी में जोश था, वहीं आज वृद्धावस्था का रोग है। किसी समय शरीर अत्यन्त रूपवान् था, किन्तु उसी पर आज कुरूपता छा गई है। रिश्ते-नाते सभी बदलते हैं, आज जो अत्यधिक प्रिय है, कल वही घोर शत्रु बन जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है। इस प्रकार का विचार-विमर्श करना विपरिणाम अनुप्रेक्षा है। आवश्यकचूर्णि638. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा39. ध्यानदीपिका ध्यानकल्पतरू", ध्यानविचार 42 आदि ग्रन्थों में शुक्लध्यान की चौथी विपरिणामानुप्रेक्षा का पर्याप्त वर्णन मिलता है। संक्षेप में, यही समझना है कि पदार्थों का प्रतिक्षण विविध रूपों में परिणमन होता रहता है, इस प्रकार उसकी प्रतिक्षण परिवर्तनशील यथार्थ का चिन्तन-मनन करना विपरिणामानुप्रेक्षा है। उक्त अनुप्रेक्षाएं सामान्य साधक के लिए सरल नहीं है, क्योंकि अति सूक्ष्म –ध्यान मात्र आन्तरिक–अनुभूतियों का विषय है। जो महान् अध्यात्मयोगी उच्चतम गुणस्थानों को प्राप्त कर चुके हैं, वे योगी ही इसकी अनुभूति कर सकते हैं। कन्हैयालालजी लोढ़ा ने 635 सुक्कस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ , तं जहा-अणंतवतियाणुप्पेहा विप्परिणामा णुप्पेहा, अशुभाणुप्पेहा, अवायाणुप्पहा।। - स्थानांगसूत्र-4/1/72. 636 आश्रवाऽपायसंसारा-नुभावभवसन्ततीः। अर्थे विपरिणामं वाऽनुपश्येच्छुक्लविश्रमे।। - अध्यात्मसार- 16/80. 637 प्रस्तुत सन्दर्भ अध्यात्मसार पुस्तक से उद्धृत, अनु. डॉ. प्रीतिदर्शना, पृ. 621. इमाओ पुण से चत्तारि ............... अणंतत्त सव्वभावविपरिणामित्तं ।। - आवश्यकचूर्णि. 639 पुत्तोवि भाउ जाओ सो चिय ......... धम्मरहिदाणं। - स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा- 64-65. 640 ध्यानदीपिका, पृ. 391. 641 ध्यानकल्पतरू, चतुर्थ शाखा, चतुर्थ पत्र, पृ. 39. 642 ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 36. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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