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________________ 213 वीतराग-भाव में स्थिर रहने की क्षमता प्रकट हो जाती है, वह श्रेष्ठतम शुभ या शुद्ध परिणाम वाला होता है। प्रशमरतिप्रकरण में जामुन खाने के इच्छुक व्यक्तियों के उदाहरण द्वारा अध्यवसायों की तीव्र, मन्द तथा मध्यम अध्यवसायों की तुलना की गई है।880 ध्यानशतक के अन्तर्गत आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आर्तध्यानी ध्यानवर्ती जीव की लेश्या तथा उनके परिणाम का निरूपण करते हुए कहते हैं कि आर्तध्यानी जीवों के कर्मोदय से उत्पन्न हुई कापोत, नील और कृष्ण-लेश्याएं रौद्रध्यान की अपेक्षा कुछ कम संक्लिष्ट परिणाम वाली होती हैं।61 आगे, ग्रन्थकार गाथा क्रमांक पच्चीस में रौद्रध्यानी में पाई जाने वाली लेश्याओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि रौद्रध्यान से ग्रस्त जीवों में भी कापोत, नील और कृष्ण- ये तीन अशुभ लेश्याएं ही होती हैं, परन्तु आर्तध्यानी की अपेक्षा अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाली एवं दूसरों के अहित में प्रवृत्त होती है। ये लेश्याएं कर्म-परिपाकजनित होती हैं।662_ धर्मध्यान में स्थित जीवों में क्रमशः विशुद्धि प्रदान कराने वाली पीत, पद्म और शुक्ल-लेश्याएं होती हैं। परिणामों की अपेक्षा से ये भी तीव्रता, मन्दता के भेदों से युक्त होती हैं।663 ध्यानशतक के अनुसार, शुक्लध्यान के प्रथम दो स्तरों में शुक्ल, तृतीय स्तर में परमशुक्ल तथा चरम स्तर में जीव अलेशी होता है।664 660 (क) ताः कृष्णनीलकापोततैजसीपद्मशुक्लनामानः । श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः || - प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक- 38. (ख) षट् लेश्या:-मनसः परिणामभेदा। स च परिणामस्तीव्रोऽध्यवसायोऽशुभो।। जम्बूफलभुक्षुषट्पुरूषदृष्टान्तादिसाध्यः ।। - प्रशमरतिप्रकरण टीका, गाथा- 38, पृ. 30. 661 कावोय-नील-कालालेस्साओ णाइसंकिलिट्ठाओ। अहज्झाणोवगयस्स कम्परिणामजणिआओ।। - ध्यानशतक, गाथा- 14. 662 कावोय-नील-कालालेस्साओ तिव्वसंकिलिट्ठाओ। रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणिआओ।। - ध्यानशतक, गाथा- 25. 663 होति कम विसुद्धाओ लेसाओ पीय-पम्म-सुक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्व-मंदाइभेयाओ।। - ध्यानशतक, गाथा- 66. 664 सुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए। थिरयाजियसेलेसं लेसाईयं परमसुक्कं।। - ध्यानशतक, गाथा- 89. 665 अवहा-ऽसंमोह-विवेग-विउसग्गा तस्स होंति लिंगाई। लिंगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो।। - ध्यानशतक, गाथा- 90. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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