Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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रहकर ज्यादा-से-ज्यादा अर्द्धपुद्गल-परिणाम संसारवाला हो जाता है। यहां एक बात समझने लायक है कि अभव्य का संसार अनन्त ही रहता है, उनका संसार–परिभ्रमण बना ही रहता है- इस प्रकार का चिन्तन करना अनन्तवर्तिकानुप्रेक्षा नामक तीसरी अनुप्रेक्षा है।627
स्थानांगसूत्र के अनुसार, संसार में परिभ्रमण की अनन्तता का विचार करना अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा कहलाती है। 28
अध्यात्मसार में लिखा है कि भवसन्तति, अर्थात् जन्म-मरण की परम्परा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। 29 अनादिकाल से जीव मिथ्यात्व और कषाय के कारण संसार में भटक रहा है, उसने अनन्तानन्त भव व्यतीत किए हैं- इस प्रकार का चिन्तन-मनन करना ही अनन्तवर्त्तितानुप्रेक्षा है।630
ध्यानदीपिका, ध्यानकल्पतरू32, ध्यानविचार33 आदि ग्रन्थों में भी इसी बात का समर्थन किया गया है। जीव की अनन्त संसार में परिभ्रमण करने की जो प्रवृत्ति रहती है, उससे निवृत्ति होने का विचार अनन्तवर्त्तितानुप्रेक्षा है।
4. विपरिणामानुप्रेक्षा - ध्यानशतक में लिखा है कि पदार्थ की पर्यायों के परिणमन से होने वाले परिणाम पर चिन्तन करना विपरिणामानुप्रेक्षा है। संसार में दृश्यमान् असंख्य वस्तुएं हैं, चाहे वे जड़ हों, अथवा चेतन, उनमें प्रतिपल-प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। आज जो वस्तु या पदार्थ सुन्दर मनमोहक एवं अच्छे लगते हैं, वे ही कल असुन्दर, अमनोज्ञ अथवा बुरे लगने लगते हैं। उनके परिवर्तनों को देखकर आश्चर्य या सम्मोह नहीं होना ही विपरिणाम अनुप्रेक्षा है।834
627 प्रस्तुत सन्दर्भ ध्यानशतक (सं. बालचन्द्रशास्त्री) पुस्तक से उद्धृत, पृ. 47. 628 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 72, पृ. 226. 623 भवसंततीः ............................ || - अध्यात्मसार- 16/81. 630 (क) संसारो पंचविहो दवे खत्ते तहेव काले य।
भवभमणो य चउत्थो पंचमओ भाव संसारो।।
बंध मंचदि जीवो ............. संसरणं जेण णासेइ।। - स्वामीकार्तिकेयानप्रेक्षा, गाथा-66-67. (ख) स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा- 66-72 की संस्कृत टीका, पृ. 37-39. 831 ध्यानदीपिका, पृ. 391. 632 ध्यानकल्पतरू, चतुर्थ शाखा, तृतीय पत्र, पृ. 387. 633 ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 36. 634 आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च।
भवसंताणमणन्तं वत्थूणं विपरिणामं च।। - ध्यानशतक, गाथा- 88.
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