Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि जीव कर्मवर्गणाओं के कारण भटकता रहता है। इसका मुख्य कारण है- मिथ्यात्व, अविरति कषाय, प्रमाद और योग । इन कर्मास्रवों के बन्ध-हेतुओं का विचार आस्रवानुप्रेक्षा है | 612
अध्यात्मसार में लिखा है- आश्रव, अर्थात् कर्मों के आने का द्वार । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग और प्रमाद- इन पांचों को ही आश्रव के पांच द्वार कहते हैं। मिथ्यात्वादि पांच द्वारों से, आर्त्त एवं रौद्रध्यान से, राग-द्वेष एवं कषायों के कारण से, इन्द्रियों की विषयोन्मुखता आदि के माध्यम से निरन्तर शुभाशुभ कर्म बंधते रहते हैं और जीव अज्ञान एवं मिथ्यात्व के अन्धकार में भटकता रहता है। इस प्रकार का चिन्तन-मनन आश्रवापायानुप्रेक्षा कहलाती है | 13
समयसार के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि मिथ्यात्वादि के निमित्त से जीव में राग-द्वेष मोह आदि उत्पन्न होते हैं, इसलिए वे आस्रव हैं। 614 इसके अलावा स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा 15, ध्यानदीपिका ", ध्यानकल्पतरू' 17, ध्यानविचार 18 आदि ग्रन्थों में भी लिखा है कि आस्रव के स्वरूप का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है ।
2. अशुभानुप्रेक्षा ध्यानशतक के कृतिकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है कि संसार के अशुभत्व का चिन्तन-मनन करना अशुभानुप्रेक्षा है। इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि विकारी - दशा या विभाव-दशा की अशुभ की कोटि में गणना की गई है, क्योंकि अन्ततोगत्वा उसका परिणाम अहितकारी ही होता है। 19 सर्वभौतिक एवं पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति अशुभ है, दुःखरूप है एवं दुःखद फल को देने वाली है पर - पदार्थों के प्रति आसक्ति के परित्याग से ही आत्महित सम्भव है - ऐसा चिन्तन करने से 'पृथक्त्व-वितर्क - सविचार शुक्लध्यान बलवान् होता है।
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613 आश्रवाऽपाय
614 मिच्छतं अविरमणं - कसाय जोगाय
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मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगो बन्ध हेतवः । - तत्त्वार्थसूत्र - 8 / 1.
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अध्यात्मसार - 16/81.
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मोह विवाग - वसादो
616 ध्यानदीपिका, गुजराती भाषान्तर, विजयकेशरसूरि, पृ. 390. ध्यानकल्पतरू, अमोलक ऋषि, चतुर्थ शाखा, प्रथम पत्र, पृ. 382.
617
ध्यानविचार - सविवेचन, सं. कलापूर्णसूरि, पृ. 36.
संसारासुहाणुभावं च
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.. रागदोसादिभावकरो ।।
समयसार, आस्रवाधिकार, गाथा - 164-165. ... . अणेय - विहा । । स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा - 89.
206
।। - ध्यानशतक, गाथा - 88.
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