Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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आगमेतर ग्रन्थों, जैसे- ध्यानशतक (झाणज्झयण), स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, अध्यात्मसार:06. ध्यानविचार:07. ध्यानदीपिका आदि ग्रन्थों में इन अनुप्रेक्षाओं को निम्नांकित नामों से जाना जाता है
1. आस्रवद्वार-अनुप्रेक्षा। (आश्रव–अपाय-अनुप्रेक्षा)। 2. संसारस्वभावानुप्रेक्षा। 3. भवसंतति-अनुप्रेक्षा। 4. विपरिणामानुप्रेक्षा (विभाव-अनुप्रेक्षा)।
1. अपायानुप्रेक्षा - ध्यानशतक के रचनाकार जिनभद्रगणि ने कहा है कि शुक्लध्यान से सुभावित चित्तवाला, चारित्र-सम्पन्न श्रमण ध्यान से उपरत होने पर भी निरन्तर चारों अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन-मनन करता रहता है।609 बन्ध के हेतुओं को दोषजनक, कष्टजनक सोचना ही अपायानुप्रेक्षा कहलाती है। 10 आस्रवद्वार कौन-कौन से हैं और उनके सेवन से इहलोक एवं परलोक में कैसे-कैसे दुःखों को भोगना पड़ेगा, कितने कष्ट सहन करना पड़ेंगे, इत्यादि विषयों का चिन्तन करना आस्रव–अपाय-अनुप्रेक्षा कहलाती
है
स्थानांगसूत्र के अनुसार, राग-द्वेष से होने वाले दोषों का विचार करना ही अपायानुप्रेक्षा है।11 .
603 (क) सुक्कस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं तं जहा-अणंतवतियाणुप्पेहा,
विप्परिणामाणुप्पेहा, अशुभाणुप्पेहा, अवायाणुप्पेहा।। - स्थानांगसूत्र- 4/1/72. (ख) भगवतीसूत्र- 25/7 (ग) औपपातिक. 604 ध्यानशतक, गाथा- 88. 605 स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा- 89, 38, 66-73, 64-65. 606 आश्रवाऽपायसंसारा-नुभावभवसन्ततीः । __अर्थे विपरिणामं वाऽनुपश्येच्छुक्लविश्रमे।। - अध्यात्मसार- 16/18. 607 ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 36. 608 ध्यानदीपिका, पृ. 390-391. 609 सुक्कज्झाणसुभाविवियचित्तोचिंतेइ झाण विरमेऽवि। _णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो।। - ध्यानशतक- 87. 01 आसवदारावाए .............................. || - ध्यानशतक, गाथा- 88. 611 स्थानांगसूत्र-4/1/72.
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