Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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शुक्लध्यान का तीसरा ध्यातव्य-द्वार है। इसमें ध्यातव्य की निर्विकल्प सत्ता होती है।596 इसमें सूक्ष्मकाययोग अवशिष्ट रहता है, किन्तु पतन की स्थिति समाप्त हो जाती है, इसलिए इसे सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति कहा जाता है। यहां काया की विचारपूर्वक होने वाली क्रियाएं समाप्त हो जाती हैं, किन्तु सहज दैहिक-क्रियाएं चलती रहती हैं।
जिसमें सूक्ष्मकाययोग की क्रिया भी समाप्त हो जाती है, वह चतुर्थ व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति नामक शुक्लध्यान का चौथा ध्यातव्य-द्वार है।597 इसमें मात्र जो बारह अथवा तेरह कर्म-प्रकृतियां उदय में हैं, वे ही बनी रहती हैं। उनके क्षय होते ही साधक निर्वाण को प्राप्त होता है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ के मन का निश्चल हो जाना और केवली के कायादि योगों का निरोध हो जाना ही अन्तिम शुक्लध्यान है।
इसका ध्यातव्य सूक्ष्मयोग निरोध ही होता है, यह पूर्णतः निर्विकल्पदशा है।
2. ध्यातृ-द्वार - 'ध्यातृ' का अर्थ ध्याता या फिर ध्यान करने वाले से है। यद्यपि ध्याता आत्मा ही होता है, फिर भी यह समझ लेना चाहिए कि सभी आत्माओं में प्रशस्त-ध्यान की सामर्थ्यता नहीं होती है। प्रशस्त- ध्यान का सामर्थ्य केवल चौथे गुणस्थान से ही सम्भव होता है। इन दोनों ध्यान के सन्दर्भ में ध्याता को लेकर मतभेद हैं।
श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार, सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीवों में धर्मध्यान सम्भव होता है, जबकि दिगम्बर-परम्परा के अनुसार यह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक के जीवों में सम्भव होता है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक में कहा है कि शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण में ध्यान करने वाला, प्रशस्त-संघयण वाला, अप्रमत्तपूर्वधर, अर्थात् वज्र-ऋषभ-नाराच-संघयण वाला होता है।98 इसी बात का समर्थन तत्त्वार्थसूत्र99 में भी मिलता है।
596 निव्वाणगमणकालेकेवलिणो ............. तणुकायकिरियस्स ।। – ध्यानशतक- 81. 597 तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिप्पंकपस्स।
वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परम सुक्कं।। - ध्यानशतक- 82.
598 सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहाय। झायारो नाणधणा धम्मझाणस्स निद्दिवा।।
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