Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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मनोविज्ञान का यह नियम है कि वही व्यक्ति सम्मोहित होता है, जो वस्तु, व्यक्ति आदि पर-पदार्थों को महत्त्व देता है, उन्हें मूल्य प्रदान करता है और उन्हें सर्वशक्तिसम्पन्न मानकर उनसे अनुग्रह की आकांक्षा रखता है, परन्तु शुक्लध्यानी इन सब पदार्थों से पृथक्त्व का बोध व अनुभव कर लेता है। साधना के फलस्वरूप प्राप्त अलौकिक-लब्धियां आदि को भी निस्सार समझता है, इसीलिए वह इन सबसे सम्मोहित एवं प्रभावित नहीं होता है।488 .
स्थानांगसूत्र में कहा है कि देवादिकृत माया से मोहित नहीं होना, अर्थात् मोहग्रस्त नहीं होना- यह शुक्लध्यानी का द्वितीय असम्मोह' लक्षण है।489
अध्यात्मसार में लिखा है कि शुक्लध्यानी का दूसरा लिङ्ग है- असम्मोह। असम्मोह का अर्थ है- व्यामोहित हो जाना, ठगा जाना, धोखे में रहना आदि का नहीं होना। शुक्लध्यान के प्रकट होने पर ध्याता को कई प्रकार की लब्धियां, सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। देवी-देवता भी उसे ललचाने के लिए, उसकी परीक्षा के लिए मायाजाल रचते हैं, परन्तु वह उससे विचलित नहीं होता, आकर्षित नहीं होता है। दूसरे शब्दों में, असम्मोह के कारण वह लेशमात्र भी माया में व्यामोहित नहीं होता है।490
ध्यानविचार में लिखा है कि शुक्लध्यानी में देवादिकृत मायाजाल, अथवा सैद्धान्तिक सूक्ष्म पदार्थ-विषयक सम्मोह-मूढ़ता का अभाव होता है। यह शुक्लध्यानी का दूसरा असम्मोह नाम का लक्षण है।491
3. विवेक-लक्षण - आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण अपनी रचना 'ध्यानशतक' में शुक्लध्यानी के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं- मूढ़ता या जड़ता न रहकर सजगता में रहना ही विवेक है। जड़ता जड़-पदार्थों में अपनत्व-भाव से आती है। तन, धन आदि जड़-पदार्थों से अपनत्व-भाव हटकर पृथक्त्व-भाव का आविर्भाव ही विवेक है। दूसरे शब्दों में, निज आत्मा को शरीर तथा सभी संयोगों से भिन्न मानना विवेक नामक तृतीय लक्षण है।492
न देवमायासु।। - ध्यानशतक-91. 489 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 70. 490 असंमोहान्न सूक्ष्मार्थ मायास्वपि च मुह्यति। - अध्यात्मसार- 16/84. 491 ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 35. 492 देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे।। - ध्यानशतक, गाथा- 92.
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