Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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मोहनीय-कर्म नष्ट हो गया हो, जो पूर्वो का ज्ञाता हो, जिसका आत्म तेज अपरिमित हो
और जो तीन योगों में से वर्तमान में किसी एक योग का धारण करने वाला हो- ऐसे साधक को दूसरा शुक्लध्यान होता है।526 क्षीणमोह के अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का एक साथ नाश करते हैं।527
उपरोक्त ग्रन्थों के अलावा षट्खण्डागम:28. ध्यानदीपिका29, ध्यानकल्पतरू530, सिद्धान्तसारसंग्रह:31, ध्यानस्त32, ध्यानसार 33 तथा आगमसार34 इत्यादि ग्रन्थों में भी शुक्लध्यान के दूसरे भेद का वर्णन मिलता है।
3. सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाती - ध्यानशतक के अन्तर्गत आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तृतीय प्रकार के शुक्लध्यान के विषय का निर्देश करते हुए कहते हैं कि केवली के मन और वचन के विकल्परूप दोनों योगों की प्रवृत्ति प्रायः समाप्त हो जाती है, मात्र सूक्ष्म-क्रियाएं ही शेष रहती हैं। यह शुक्लध्यान का सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाती नामक तृतीय प्रकार है। इसे प्रतिपाती कहने का आशय यह है कि इसमें दूसरों के निमित्त से उपयोगदशा में परिवर्तन सम्भव है।535
तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि केवली के योगनिरोध के क्रम अन्ततः सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग और काययोग का पूर्णतः निरोध कर देते हैं। उस वक्त तक यह
526 द्वितीयमाद्यवज्ज्ञेयं विशेषस्त्वेकयोगिनः ............. || - आदिपुराण- 21/184. 527 (क) षटखण्डागम, भाष्य-5, धवलाटीका, पृ. 79-80
(ख) सर्वार्थसिद्धि- 9/44. 528 षट्खण्डागम, भाग- 5, धवलाटीका, पृ. 79.
सवितर्कसविचारं पृथक्त्वं च प्रकीर्तितम । ___ शुक्लमाद्यं द्वितीयं च विपर्यस्तमतः परम् ।। - ध्यानदीपिका, त्र.- 9, श्लोक- 197. 530 ध्यानकल्पतरू, चतुर्थ शाखा, द्वितीय पत्र, पृ. 360. 531 सिद्धान्तसारसंग्रह- 11/76.
ध्यानस्तव, श्लोक- 17. 533 आत्मगणे स्वपर्याय स्वसंवेदनलक्षणे।
स्वस्मिन् एकत्वसंलीनं तदेकत्व श्रुतस्थिरम् ।। - ध्यानसार, श्लोक- 147. 53 आगमसार, पृ. 174.. 535 निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरूद्धजोगस्स। ।
सुहमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकायकिरियस्स।। - ध्यानशतक, गाथा- 81. 536 यह क्रम इस प्रकार है- स्थूल काययोग के आश्रय से वचन और मन के स्थूलयोग को सूक्ष्म बनाया जाता है। इसके बाद वचन और मन के सूक्ष्म योग को अवलम्बित करके शरीर के स्थूल योग को सूक्ष्म बनाया जाता है, फिर शरीर से सूक्ष्म योग को अवलम्बित करके वचन
और मन के सूक्ष्म योग का निरोध किया जाता है और अन्त में सूक्ष्म शरीर का भी निरोध किया जाता है। - तत्त्वार्थ सूत्र, विवे च क- सुखालाल संघवी, पृ. 230:
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