Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ही ध्येय पर चित्तवृत्ति के स्थिर रहने के कारण इसे एकत्व-वितर्क-अविचार शुक्लध्यान कहते हैं।520 इसमें ध्यान का विषय रहता है, किन्तु विकल्प या विचार समाप्त हो जाते
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति के अनुसार अनेक द्रव्यों एवं पर्यायों में से मात्र एक द्रव्य या उसकी एक पर्याय का आलम्बन लेना ‘एकत्व-वितर्क-अविचार' नामक शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार है। 21
ज्ञानार्णव में लिखा है- साधक पृथक्त्वरहित, विचाररहित और वितर्कसहित निर्मल एकत्व-ध्यान को प्राप्त कर लेता है।522
योगशास्त्र में कहा है कि शुक्लध्यान के द्वितीय भेद में पूर्वश्रुतानुसार कोई भी एक ही पर्याय ध्येय होती है। एक ही ध्येय होने से इसमें संक्रमण नहीं होता है, इसलिए यह ‘एकत्व-वितर्क-अविचार' नामक दूसरा शुक्लध्यान है। 23
. गुणस्थानक-क्रमारोह में कहा गया है कि क्षीणमोह-गुणस्थान में से क्षपक जीव अच्छी तरह आत्मा की वर्तमानकालीन एक पर्याय से ध्याता है। समभावरसी अतिविशुद्ध अपने परमात्म-स्वभाव में लीन रहते हैं। इस ध्यान में ध्याता पृथक्त्व-वितर्क-सविचार से रहित होकर एकत्व-वितर्क-अविचार होकर एक ही द्रव्य, गुण अथवा पर्याय का निष्प्रकम्प चित्त से ध्यान करता है।524
अध्यात्मसार के अन्तर्गत बताया गया है कि एकत्व-वितर्क और विचार से संयुक्त एक पर्याय वाला जो दूसरा शुक्लध्यान है- वह निर्वात-स्थान पर रही हुई दीपक की ज्योति के समान है।525
आदिपुराण में भी यही कहा है- दूसरा एकत्ववितर्क नाम का शुक्लध्यान भी पहले शुक्लध्यान के समान ही जानना चाहिए, किन्तु विशेषता इतनी ही है कि जिसका
520 तत्त्वार्थसूत्र-9/41. 521 एकस्य भाव एकत्वं ..... ।। -तत्त्वार्थसिद्धवृति, ध्यानशतक पुस्तक से उद्धृत, पृ. 135. 52 अपृथक्त्वमविचारं सवितर्क च योगिनः । ___ एकत्वमेकयोगस्य जायतेऽत्यन्तनिर्मलम् ।। - ज्ञानार्णव- 42/26. 523 एवं श्रुतानुसाराद् एकत्ववितर्कमेकपर्याये।।
अर्थ-व्यंजन-योगान्तरेष्वसंक्रमणमन्यत्तु।। - योगशास्त्र- 11/7. 524 अपृथक्त्वमविचारं सवितर्कगुणान्वितम् ।
स ध्यायत्येकयोगेन शुक्लध्यानं द्वितीयकम्।। - गुणस्थानक-क्रमारोहण- 75. 525 एकत्वेन वितर्केण विचारेण च संयुतम् । निर्वातस्थप्रदीपाऽऽभं द्वितीयं त्वेकपर्ययम्।। - अध्यात्मसार- 16/77.
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