Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ' नामक तृतीय शुक्लध्यान रहता है, क्योंकि इसमें केवल योग ही रह जाते हैं। इसमें मात्र उपयोग-परिवर्तन सम्भव होता है, अतः यह प्रतिपाती कहा जाता है।537 .
स्थानांगसूत्रवृत्ति के अनुसार, यह शुक्लध्यान की तीसरी सीढ़ी है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी-केवली मात्र अन्तर्मुहूर्त-परिणाम आयु शेष रहने पर नाम, गोत्र एवं वेदनीय-कर्म की स्थिति आयुष्य-कर्म के समान करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं। उसमें नाम, गोत्र तथा वेदनीय-कर्म भी आयुष्य-कर्म के समान रह जाते हैं। इसके बाद स्थूल मानसिक-वाचिक तथा कायिक-व्यापार का निरोध करते हैं, मात्र सूक्ष्मयोग ही शेष रहते हैं, अतः इसे ही सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति कहते हैं।538
___ सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि केवली जब अन्तर्मुहूर्त मात्र आयु के शेष रहने पर मुक्तिगमन के समय कुछ योग-निरोध कर सूक्ष्म काया की क्रियारूप जो ध्यान करता है, वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती-शुक्लध्यान कहलाता है।539
ज्ञानार्णव में कहा गया है कि घाती-कर्मों से मुक्त होकर केवलज्ञानरूपी सूर्य से प्रकाशमान हुए वे सर्वज्ञ अन्तर्मुहूर्त मात्र आयुष्य के शेष रह जाने पर तृतीय सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाती शुक्लध्यान के योग्य होते हैं।540
योगशास्त्र के प्रणेता कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थ के अन्तर्गत 'सूक्ष्मक्रिया-अनिवर्ती' शुक्लध्यान का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि केवल ज्ञानरूपी लक्ष्मी को प्राप्त तथा अपार शक्ति से युक्त सयोगी-केवली बादर-काययोग का अवलम्बन लेकर बादर-वचनयोग और मनोयोग को शीघ्र ही रोक लेता है। इस प्रकार सूक्ष्म काययोग से बादर-काययोग को रोकता है। बादर-काययोग का निरोध किए बिना सूक्ष्म काययोग का निरोध असम्भव है। तत्पश्चात्, सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचन और मनोयोग को रोकते हैं। तदनन्तर सूक्ष्मकाययोग से भिन्न (रहित) होकर
537 तत्त्वार्थसूत्र- 9/41-46. 538 स्थानांगसूत्र- 247, वृत्ति- 81. . 539 ... स यदाऽन्तमुहूर्त शेषायुष्कतदा सर्ववाङ्मनसयोगं बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाय
योगालम्बनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान.......... || – सर्वार्थसिद्धि- 9/44/5. 50 सर्वज्ञः क्षीणकर्मासौ केवलज्ञानभास्करः।।
अन्तर्मुहूर्तशेषायुस्तृतीयं ध्यानमर्हति।। - ज्ञानार्णव- 39/37.
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