Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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तथा आगमसार””” इत्यादि ग्रन्थों में भी शुक्लध्यान के प्रथम भेद पृथक्त्व - वितर्क-विचार
का उल्लेख मिलता है ।
2. एकत्व - वितर्क - अविचार
ध्यानशतक में शुक्लध्यान के द्वितीय प्रकार का वर्णन करते हुए जिनभद्रगणि कहते हैं कि वायुरहित प्रदेश में रखे हुए निष्कम्प लौ वाले दीपक के समान जो चित्त उत्पाद, स्थिति और लय में से किसी एक पर्याय में स्थिर हो निष्कम्प होता है, जो अविचार होकर पूर्वगत श्रुत का आश्रय लेने वाला होता है, वह अर्थ, व्यंजन और योग के विचार से रहित होने के कारण एकत्व - वितर्क - अविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान है। इसके अन्तर्गत ध्येय के अर्थ - व्यंजन - योग का भेद नहीं रहता है |518
स्थानांगसूत्रवृत्ति के अनुसार, बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह क्षपक-साधक की चित्तवृत्ति इस सीमा तक स्थिर या निश्चल बन जाती है कि वहां द्रव्य, गुण अथवा पर्याय के चिन्तन में परिवर्तन नहीं आता है, बल्कि व्यक्ति किसी एक पर्याय पर सूक्ष्मता से या गम्भीर रूप से चिन्तन में निमग्न हो जाता है- यह शुक्लध्यान की दूसरी सीढ़ी है। इसमें साधक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय - कर्म की सम्पूर्ण प्रकृतियों को नाश कर अनन्त - ज्ञान, अनन्त - दर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त - सुख का धारक सयोगी जिन बनकर तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश पा जाता है। 519
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार- 'किसी एक पर्याय पर चित्तवृत्ति निष्कम्प दीपशिखा के समान स्थिर हो जाती है, अतः मन निश्चल और शान्त बन जाता है। इसके परिणामस्वरूप, कर्मों के आवरण शीघ्र ही दूर होकर वीतराग - दशा प्रकट होती है। एक
511 सवितर्क सविचारं पृथक्त्वं च प्रकीर्तितम् ।।
512
ध्यानकल्पतरू, चतुर्थ शाखा, प्रथम पत्र, पृ. 358.
513 ध्यानविचारसविवेचन, पृ. 358.
514
सिद्धान्तसारसंग्रह - 11/71-72.
515 सवितर्क सविचारं सपृथक्त्वमुदाहृतम् ।। 516 आत्मद्रव्येषु पर्याये
517
519
ध्यानदीपिका, प्रकरण - 9, श्लोक- 198.
आगमसार, पृ. 174.
518 जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पाय-ट्ठिइ-भंगाइयाणमेगम्मि पज्जाए ||
192
ध्यानस्तव, श्लोक - 17.
यांति योगिनाम्।। – ध्यानसार, श्लोक - 143-146.
अवियारमत्थ- वंजण- जोगंतरओ तयं बिइयसुक्कं ।
पुव्वगयसुयालंबणमेगत्त वितक्कमवियारं । । - ध्यानशतक, गाथा - 79-80.
स्थानांगसूत्र, स्थान चतुर्थ, उद्देशक - 1, सूत्र - 68.
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