Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ध्यानविचार 498 एवं ध्यानकल्पतरू' इन दोनों ग्रन्थों में लिखा है कि निःसन्देह देह एवं उपधि का त्याग - यह शुक्लध्यानी का व्युत्सर्ग नामक लक्षण कहा जाता है।
साधना का मार्ग बड़ा कठिन है। साधक जब स्व-पर के भेद - विज्ञान को सर्वथा जान लेता है, तब स्व-पर पदार्थों के प्रति उसकी आसक्ति या ममत्व मिट जाता है। यहां तक कि अपनी देह के लिए उपयोगी वस्तुओं में भी चित्त की वृत्ति, अर्थात् भीतर की परिणति अनासक्तिमय बन जाती है ।
शुक्लध्यान के स्तर एवं भेद
धर्मध्यान के बाद की स्थिति शुक्लध्यान है। यह ध्यान आत्म- - मुक्ति का मूल मंत्र है । शुक्लध्यान के द्वारा मन को शान्त और निर्विकल्प किया जाता है। शारीरिक - पीड़ाओं में भी स्थिर हुआ चित्त लेश मात्र भी चलायमान नहीं होता। इस ध्यान की अन्तिम परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है | 500
यह चित्तवृत्ति का निरोध और मन के अमन ( शान्त) हो जाने की स्थिति है । जैनग्रन्थों में शुक्लध्यान के भी चार प्रकार (भेद) देखने को मिलते हैं 501 1. पृथक्त्व - वितर्क - सविचार 2. एकत्व - वितर्क - अविचार 3. सूक्ष्मक्रिया- अप्रतिपाती 4. व्युपरतक्रिया - निवृत्ति ।
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ध्यानकल्पतरू, चतुर्थ शाखा, पत्र - 1 - 4, पृ. 364-371.
500 जैनसाधना-पद्धति में ध्यान, डॉ सागरमल जैन, पृ. 30.
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(क) स्थानांगसूत्र - 4/1/69, पृ. 225.
आचार्य जिनभद्रगणिकृत ध्यानशतक' 1902 में भी शुक्लध्यान के इन्हीं चार प्रकारों का उल्लेख है। वस्तुतः शुक्लध्यान के ये चार प्रकार उसके चार स्तर हैं ।
(ख) समवायांग, सम. - 4.
(ग) तत्त्वार्थसूत्र - 9/41.
(घ) भगवती आराधना - 1872-73.
हरिवंशपुराण - 53 /53-54.
(च) षट्खण्डागम, भाग - 5, पृ. 77. (छ) योगशास्त्र - 11/5.
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(ज) सिद्धान्तसारसंग्रह - 11/51.
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उपाय- इ - भंगाइपज्जयाणं जमेगदव्वंमि । नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं । । सवियारमत्थ वंजण - जोगंतरओ तयं पढमसुक्कं । होइ पुहुत्तवितक्कं सवियारमरागभावस्स ।।
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