Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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आदिपुराण में भी यह स्पष्ट लिखा है कि ध्यानाभिलाषी धीर, वीर साधकों के लिए रात-दिन और संध्याकाल आदि का समय निश्चित नहीं है। ध्यानरूपी धन इच्छानुसार किसी भी समय प्राप्त किया जा सकता है।373
जो निरन्तर शुभभावों में रमण करता है, उस मुनि के लिए काल-विशिष्ट का महत्त्व नहीं है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक जैनसाधना-पद्धति में ध्यान74 में स्पष्ट लिखा है कि जहां तक मुनि की सामाचारी का प्रश्न है, उत्तराध्ययन-सूत्र में सामान्य रूप से मध्याह्न और मध्यरात्रि को ध्यान के लिए उपयुक्त समय बताया गया है।75 उपासकदशांगसूत्र में शकडाल पुत्र के द्वारा मध्याह्न में ध्यान करने का निर्देश है।376 कहीं-कहीं प्रातःकाल और संध्याकाल में भी ध्यान करने का विधान मिलता है।
4. आसन-द्वार - ध्यानशतक ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने लिखा है कि देह की जिस अभ्यस्त-अवस्था में निर्बाध ध्यान सम्भव हो, उसी अवस्था में ध्यान करना चाहिए। इसमें बैठे या खड़े रहने के लिए किसी खास आसन का महत्त्व नहीं है।77
दूसरे शब्दों में, सामान्यतया योगदर्शनों में ध्यान के लिए आसन को आवश्यक माना गया है, किन्तु जैन-दर्शन में ध्यान के लिए आसन के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भी इस बात पर ज्यादा जोर दिया गया है कि शरीर की जिस किसी भी अवस्था में ध्यान सम्भव हो, उसी अवस्था या आसन को स्वीकार करके ध्यान करना चाहिए।
___टीकाकार हरिभद्र ने अपनी टीका में भी मूल ग्रन्थकार के मन्तव्य को स्वीकार करते हुए कहा है कि जिस किसी आसन से ध्यान में स्थिरता प्राप्त होती हो, उसी आसन में ध्यान करना चाहिए। यद्यपि उन्होंने टीका में खड़े होकर, बैठकर अथवा वीरासन आदि के द्वारा ध्यान करने का निर्देश किया है। 378
373 न चाहोरात्रसंध्यादिलक्षण: कालपर्ययः ।
नियतोऽस्याति दिध्यासोस्त्दध्यानं सार्वकालिकम् ।। - आदिपुराण- 21/81. 374 जैनसाधना-पद्धति में ध्यान, डॉ सागरमल जैन, पृ. 20. 375 उत्तराध्ययनसूत्र- 26/12. 376 उपासकदशांगसूत्र- 8/182. 377 जच्चिय देहावत्था जियाण झाणोवरोहिणी होइ।
झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णोवा।। - ध्यानशतक, गाथा- 39. 378 उपविष्टो वीरासनादिना ...... || - ध्यानशतक, हारिभद्रीय टीकासहित, सन्मार्ग प्रकाशन, पृ. 66
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