Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार, आसन से स्वास्थ्य भी सुदृढ़ होता है और ध्यान से होने वाली शरीर की हानियों से दूर रहा जा सकता है।390
डॉ सागरमल जैन का कहना है कि समाधिमरण या शारीरिक-अशक्ति की स्थिति में लेटे-लेटे भी ध्यान किया जा सकता है।391
सरांश यह है कि जिन आसनों को साधक ने सिद्ध कर लिए हों और सुखपूर्वक बैठने में जो आसन व्यवधान न पहुंचाते हों, वे ही आसन ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।392
5. आलम्बन-द्वार - वाचना, प्रश्न पूछना, सूत्रों का अभ्यास, अनुचिन्तन, सामायिक और सद्धर्म की आवश्यक बातें- ये ध्यान के आलम्बन हैं।393
जिस प्रकार कोई व्यक्ति मजबूत रस्सी के सहारे दुर्गम स्थान पर पहुंच जाता है, उसी प्रकार साधक भी वाचना, पृच्छना आदि के आलम्बन से शुद्ध ध्यान में आरूढ़ हो जाता है, अथवा ध्यान का साधक सूत्रों का सहारा लेकर श्रेष्ठ ध्यान तक जा पहुंचता
__शुक्लध्यान की अन्तिम दो अवस्थाओं को छोड़कर धर्मध्यान और प्रारंभिक शुक्लध्यान में आलम्बन रहते हैं। इन आलम्बन की चर्चा करते हुए मूल ग्रन्थकार ने एक ओर सामायिक तथा दूसरी ओर वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुचिन्ता आदि को ध्यान के आलम्बन के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने यह माना है कि सामायिक आदि आवश्यक-क्रियाएं और स्वाध्याय- ये ध्यान के आलम्बन हैं। सामायिक में जो मुख-वस्त्रिका, प्रतिलेखन आदि क्रियाएं 'सकल चक्रवाल समाचारी' में समाहित हैं, वे प्रतिलेखनादि में चित्त की एकाग्रता और सजगता के लिए आवश्यक हैं। इस प्रकार, षडावश्यकों, जो कि चारित्रधर्मरूप हैं, उनमें भी सजगता और एकाग्रता आवश्यक होती है, अतः वे भी आलम्बन ही माने गए हैं। इसी प्रकार, स्वाध्याय के वाचनादि अंग भी
991 जैनसाधना-पद्धति में ध्यान, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 19. 392 ज्ञानार्णव- 28/11. 393 आलंबणाइ वायण-पुच्छण-परियट्टणाऽणुचिंताओ।
सामाइयाइयाइं सद्धम्मावस्ससयाइं च।। - ध्यानशतक-42.
394 विसमंमि समारोहइ दढदव्वालंबणो जहा पुरिसो।
सत्ताइकयालंबो तह झाणवरं समारूहइ।। - ध्यानशतक, गाथा- 43.
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