Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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चित्तवृत्ति की विकल्पता शान्त होने लगती है और रागभाव समाप्त होकर आत्मविशुद्धि होती जाती है। भावना के माध्यम से नए कर्मों का आगमन रुकता है और पुराने कर्मों की निर्जरा होती है तथा व्यक्ति का चित्त संक्लिष्ट नहीं रहता है, उसमें वैराग्यभाव का विकास होता है।
जो हमारे राग के विषय हैं, हम उनकी वियोगशीलता, अनित्यता और अशरणता को समझते हैं, तो उनके प्रति हमारा रागभाव क्रमशः कम होता जाता है और रागभाव के कम होते ही व्यक्ति आत्मविशुद्धि की ओर बढ़ता है, इसलिए ध्यानसाधना के क्षेत्र में भावनाद्वार अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। यही कारण है कि न केवल ध्यानशतक में, अपितु मरणसमाधि आदि ग्रन्थों में भी भावनाओं का उल्लेख हुआ है।
आचारांग में स्पष्ट रूप से यह माना गया है कि पांच महाव्रतों का पालन पच्चीस भावनाओं के माध्यम से ही सम्भव है और इसीलिए उसके अन्तिम अध्याय में पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का विस्तृत वर्णन है। इसी प्रकार, दिगम्बर-परम्परा में भी आचार्य कुन्दकुन्द का बारस्सानुवेक्खा तथा स्वामीकार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक ग्रन्थ भावना की साधना के लिए महत्वपूर्ण माने गए हैं।
10. लेश्या-द्वार -
लेश्या दो प्रकार की होती हैं
__ 1. प्रशस्त (शुभ) और 2. अप्रशस्त (अशुभ) । पूर्ववर्ती कृष्ण, नील, कापोत- ये तीन लेश्याएं अप्रशस्त कहलाती हैं, परन्तु ध्यानसाधना में तो परवर्ती पीत, पद्म और शुक्ल- ये तीन प्रशस्त लेश्याएं ही होती हैं। धर्मध्यान के ध्याता को क्रमशः उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होने वाली पीत, पद्म और शुक्ल- ये तीन प्रशस्त लेश्याएं ही होती हैं, जो तीव्र, मंद और मध्य प्रकारों से युक्त होती हैं।464
464 होंति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीय-पम्म-सुक्काओ।
धम्मज्झाणोवगयस्य तिव्व-मंदाइभेयाओ।। - ध्यानशतक, गाथा- 66.
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